Aap Ko Yah Jaan Kar Prasanntaa Hogee आप को यह जान कर प्रसन्नता होगी
एक लेखक का यादृच्छिक संसार
गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016
बुधवार, 18 मार्च 2015
आशा बलवती है राजन!
‘आशा बलवती है राजन!’ : नन्द चतुर्वेदी का गद्य
हेमंत शेष
मूल्यवान समाजवादी-चिन्तक, हिन्दी के सम्मान्य प्रोफ़ेसर और हमारी भाषा के भीतर तक कवि नन्द चतुर्वेदी का गत दिसंबर में उदयपुर में हुआ निधन, हमारे साहित्यिक परिदृश्य से एक कवि के अलावा हिन्दी से एक बेहतरीन गद्यकार का चिर-प्रस्थान ही है| ज्यादातर हिन्दी-मित्रों, उदयपुर के बाशिंदों और पाठकों की नज़र में ‘नन्द बाबू’- जैसा लोग प्रायः प्यार से इस ९१ बरस के ‘नौजवान’ को कहते रहे- प्रमुखतः एक हिन्दी कवि थे- पर मेरी विनम्र राय में इन सालों में उनके जैसा सरस और सार्थक गद्य लिखने वाला दूसरा लेखक नहीं हुआ |
वह अपने द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘बिंदु’ आदि में तो बराबर गद्य लेखन करते ही रहे- ‘शब्द-संसार की यायावरी’, ‘यह हमारा समय’ और ‘अतीत-राग’ जैसी किताबों के रूप में भी उनके लिखे कुछेक गद्य-आलेख अब सुलभ हैं – इस बात के बावजूद कि उनकी निजी दिलचस्पी ज्यादा छपने-छपाने में कभी नहीं रही- पर नन्द जी का असल मन, आत्मीय गद्य, लेखों के अलावा उनकी उन सैंकड़ों चिट्ठियों में भी टटोला जा सकता है जो वक़्त-वक़्त पर अपने दोस्तों, कनिष्ठों, प्रशंसकों और साहित्यिक-मित्रों को लिखते रहे थे|
पत्र-लेखन का कोई मौका वह नहीं छोड़ते थे- खास तौर पर फोन-संचार के इस युग में भी- जब चिठ्ठी लिखना आज के प्रमादग्रस्त लोगों को एक भयंकर दूभर उपक्रम लगता है| नन्द जी पुरानी पीढ़ी के उन साहित्यकारों में से थे- जो टेलीफोन की बजाय पत्रों को आपसी-संवाद का अधिक मानवीय, मैत्रीपूर्ण और अन्तरंग जरिया मानते थे|
मेरे पास उनके लिखे कई पत्र हैं, जो कागजों के अम्बार में अभी किसी गहरी नींद में सो रहे हैं- जिन्हें अब प्रकाश में, बाहर आना होगा- पर जोधपुर में कोई दो साल पहले भारतीय साहित्य अकादमी, दिल्ली के एक आयोजन में नंद जी से एक बार और मिलना- उनसे बातें करना और उन्हें सुनना हमेशा की तरह सार्थक अनुभव था | उन्होंने वहां से लौट कर मुझे ‘राजकमल प्रकाशन’, नई दिल्ली से प्रकाशित लेखों की अपनी किताब अपने पुत्र सुयश चतुर्वेदी के हाथों भिजवाई थी| इससे पहले भी मैं (उनके हस्तलेख से ही) समय-समय पर उनके दूसरे संग्रह प्राप्त कर चुका था|
कहना न होगा कि इस पुस्तक में नन्द जी ने बहुत सारे समसामयिक सामाजिक राजनैतिक सरोकारों पर लिखने के अलावा अपनी एक और किताब- “ अतीत-राग” में अपने क़स्बे, परिवारजन और समकालीनों पर भी बड़े आत्मीय संस्मरणात्मक लेख लिखे हैं| ‘यह हमारा समय’ किताब में वह जिस प्रखरता से वर्ण-व्यवस्था, स्त्री-शक्ति, महिला-स्वातन्त्र्य, दलित-प्रश्नों, समाजवाद, शिक्षा, धर्म, हिंसा, बाजारवाद, हिन्दी, संचार-साधनों, पत्रकारिता, मीडिया, भारतीयता आदि गंभीर विषयों पर एक गहरी अंतर्दृष्टि से विचार कर सकते थे- वहीं वह खेदपूर्वक बातचीत या कभी पत्रों में, इस बात को भी रेखांकित करते थे कि इधर अपने समकालीन लेखकों पर ‘संस्मरणात्मक’ लेखन की परंपरा हिन्दी पत्रकारिता में प्रायः चुक सी गयी है|
“यह हमारा समय” (राजकमल प्रकाशन.२०१२) की अपनी भूमिका में नन्द जी ने लिखा था- “गद्य-लेखन के बारे में में यह कहना आवश्यक समझता हूँ कि यह ‘स्वतः-स्फूर्त’ सर्जना नहीं है, यह अपने बाहरी दबावों की निष्पत्ति है और एक सुतार्किक निष्कर्ष तक पहुँचती यात्रा है| लेकिन यह कहना उचित नहीं है कि गद्यलेखन ‘दोयम दर्जे’ की साधना है| अब कविता-भाषा का गद्य-रूप लेना भाषा की शक्ति का विस्तार और काव्य-भाषा के वर्चस्व की प्रचलित रूढ़ियों को अस्वीकार करना भी कहा जाएगा| (पृ. 9-10)
इस पुस्तक में “कई विषयों पर लिखे आलेख हैं जिनमें समय के दबावों, उनको समता और स्वतंत्रता के वृहत्तर उद्देश्यों में बदलने वाले आन्दोलनों की चर्चा है| ‘समता’ ही केन्द्रीय चिंता है जिसे अवरुद्ध करने के लिए विश्व की नई पूंजीवादी शक्तियां अपने सांस्कृतिक एजेंडा के साथ जुडी हुई हैं| दुनिया के लोग अघाए और शुचितों के बीच बाँट दिए गए हैं| लालची मध्यवर्ग अपनी समृद्धि के सपने देखता पूंजीपतियों की मायावी दुनिया का सहचर हो गया है|”
कहने का भाव यह है कि नन्द जी के गद्य में सर्वत्र जो खरापन, तार्किकता और विश्लेषण दीखता है वह उनकी गहरी समाजवादी अंतर्दृष्टि से आया है- उसमें किसी तरह की आंसू-धकेल भावुकता नहीं- तर्क और विवेक की रोशनी है| “इस संकलन में उन्हीं सब सन्दर्भों और परम्परों को खंगाला गया है जो समता के विचारों और पक्षों को मज़बूत करती हैं| ‘धर्म’ के उसी पक्ष को बार बार रेखांकित किया गया है जो धर्म के स्थूल, बाहरी कर्मकांड को महत्वहीन मानता है लेकिन जो संवेदना के उन सब चमकदार पक्षों को शक्ति देता है, जो सार्वजानिक जीवन को गरिमामय बनाते हैं|”
इन सब आलेखों में नंदजी के कवि-मन पर समकालीन प्रश्नों की गहरी काली छाया है- पर जिससे मुक्ति पाने का सपना भी इन गद्य-रचनाओं में झिलमिलाता है| खुरदरी वास्तविकताओं और जटिल-सामाजिक-राजनैतिक षड्यंत्रों की खोज-खबर लेते उनके कई गद्य-आलेख हमें किसी तरह भी हताशा का सन्देश नहीं देते, एक आशावादी, उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्ति जागते कर्मठ लेखक के मन-मानस का पता बताते लगते हैं|
नन्द जी ने इन पंक्तियों के लेखक द्वारा उदयपुर और जयपुर आयोजित कुछ राष्ट्रीय-वैचारिक समागमों में बड़ी उत्सुकता और उत्साह से शिरकत की थी| वह दो-दो, तीन-तीन दिन बराबर उनमें उपस्थित रहे और यथासमय मौखिक टिप्पणियाँ भी देते रहे| एक बेहतरीन वक्ता तो वह थे ही- कई अवसरों पर नंदजी ने इन गोष्ठियों में भी अपने वाक्-चातुर्य और बेहतरीन वाग्मिता से सुनने वालों को उत्फुल्ल किया | भाषाई-सौष्ठव, हाज़िर-जवाबी और यथावसर व्यंग्यात्मकता उनके भाषण और सामान्य-चर्चा तक में सहज तौर पर आते थे| वह अपनी बात बड़ी कुशलता और क्रमबद्ध, किन्तु रोचक ढंग से रखा करते थे| बोलते समय विषय के अलावा भाषा पर भी उनका अधिकार बड़ा मनमोहक था|
उन्होंने हमारी पत्रिका ‘कला-प्रयोजन’ को न केवल एक लंबा इंटरव्यू ही दिया था, बल्कि समय-समय पर इस पत्रिका को अपना रचनात्मक सहयोग भी| ‘भारतीयता की धारणा’ को केंद्र में रख कर जब पश्चिम-क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के माध्यम से एक राष्ट्रीय विचार-गोष्ठी आयोजित करने और बाद में उस समागम में पढ़े गए पर्चों को संकलित कर पत्रिका ‘कला-प्रयोजन’ का विशेषांक निकालने का विचार इन पंक्तियों के लेखक को आया तो नन्द बाबू ने हमारे आग्रह पर एक स्वतंत्र-आलेख लिखा- “भारतीयता की तलाश”| यह मूलतः उसी संगोष्ठी के लिए आकल्पित लेख था- जो बाद में उनके गद्य संकलन ‘यह हमारा समय’ में छपा है|
नन्द जी ने इस आलेख में लिखा था-“ भारतीयता के प्रसंग की सबसे जटिल-ग्रंथि तो उसको पहचानने की है| उन विशेषताओं को रेखांकित करने की, जो मौलिक हैं और संशयरहित हैं | विशेषताओं को रेखांकित करते समय उन सीमांतों की स्पष्ट समझ, जहाँ सिर्फ अत्यंत आवश्यक धुंधलका ही बचे, अन्यथा उनके अर्थ और मर्यादाएं स्पष्ट नज़र आती रहें, और जो अतीत में ही अर्थवान और चमकती नज़र न आयें, बल्कि वर्तमान में भी स्पष्टतर होती नज़र आयें|
..... आवश्यक बात तो यह है कि पहचान के संकट को जानने के लिए हमें समाज के उस चित्त को ही जानना पड़ता है जो समय की अनंत उथल-पुथल और अनिश्चयों के बीच अपनी आस्थाओं और प्रतिज्ञाओं को नष्ट नहीं होने देता| हम हज़ारों प्रकार की स्मृतियों की छाया-आतप से गुज़रते हुए उस संपदा को इकट्ठी करते हैं, जिसे हम संस्कृति कहते हैं और जो बाद में हमारे समूह-चित्त के राग-द्वेष का निर्धारण करती है| राग ही की तरह द्वेष भी संस्कृति के हिस्से की चीज़ है| ध्यान देने की बात है कि संस्कृति अनुभवों की विराट श्रृंखला है इसलिए उसमें पुनर्नवा होने या कुच्छ विलुप्त होने की सारी संभावनाएं मौजूद हैं| मनुष्य इसी तरह इसी पराक्रम में अपना समय और संसार बनाते हैं|”
नन्द जी के गद्य की खासियत उसका ओढ़ा हुआ पांडित्य नहीं, बल्कि उसकी सहज सरल विश्सनीयता है| भाषा के सौन्दर्य का जितना आकर्षण इस गद्य में सुलभ है- उसी अनुपात में में लेखक की अपनी अविचलित आस्था और सामाजिक प्रतिज्ञा भी हमें निरंतर अनुभव होती है | कविता और गद्य- दोनों ही में एक सक्षम लेखक की तरह वह कभी भी अपने केंद्र से विचलित नहीं दीखते और बराबर अपने संकल्पों और स्वप्नों का पीछा करते हैं|
‘अतीत-राग’ (राजकमल प्रकाशन, २००९) पुस्तक में, मूलतः लोगों और जगहों के बारे में आत्मीय, अन्तरंग संस्मरण संकलित हैं| ये लेख एक सहृदय कवि-मन पर पड़ी लोगों की छवियों का अनुस्मरण हैं- ये बिलकुल टटकी, ताज़ा स्मृति हो जैसे! लेखक के शब्दों में- “ अतीत-राग’ के आलेख किंचित भावुकता के साथ लिखा उन लोगों का स्मरण है, जिनकी स्नेह-छाया में मैंने अपनी ज़िन्दगी को ‘पुनर्वसित’ करने की कोशिश की है| मैं आशा करता हूँ कि उनकी मूल्यवान जिंदगियां, हमारे बहत से संशयों की निरर्थकता का उच्छेदन कर सकने में मददगार साबित हो सकती हैं..”
इस किताब में नन्द बाबू ने पंडित जवाहर लाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, हीरालाल जैन, नरेन्द्रपाल सिंह चौधरी, गिरिधर शर्मा ‘नवरत्न’, शकुंतला ’रेणु’, पंडित रामनिवास शर्मा, जैनेन्द्र कुमार, डॉ. श्यामाचरण दुबे, डॉ. शिवमंगल सिंह ’सुमन’, डॉ. रांगेय राघव, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, कौशल्या अश्क, यशपाल, डॉ. कालूलाल श्रीमाली, डॉ. आलम शाह खान, पंडित युगलकिशोर चतुर्वेदी, रामगोपाल विजयवर्गीय, केसरीलाल बोर्दिया (दादाभाई), प्रकाश आतुर, भागीरथ भार्गव, डॉ. नरेन्द्र भानावत, कल्याणमल लोढ़ा, महेंद्र भानावत, कमर मेवाड़ी, ललितकिशोर चतुर्वेदी के अलावा अपने गाँव और वहां के ‘भागीरथ काका’ के बारे में भी बहुत अच्छे संस्मरण लिखे हैं| एक मज़ेदार संस्मरण उनकी पहली और शायद अंतिम इंग्लेंड यात्रा के बारे में भी है!
भावना में डूबे से कलेवर में प्रायः संक्षिप्त ये संस्मरण व्यक्तियों के बारे में बहुत सधा हुआ, विश्वसनीय और अधिकृत विवरण देते हैं| नन्द जी जिन मार्मिक स्वरों में बीते दिनों की याद अपने गाँव के दिनों को लेकर करते हैं, वे स्वर उनके कवि-चित्त की भावना भरी-सरलता और मृदुलता के बंद किवाड़ खोलते हैं| एक धुंधले से, (किन्तु पढ़ने में अच्छे लगने वाले) विषाद की छाया उनके पुश्तैनी घर और गाँव संबंधी संस्मरण में है| अपने आरंभिक जीवन, बचपन और तरुणाई के कई चित्र-शिल्प वह कुशलता से टांचते हैं| नन्द जी ने अपनी साहित्य-यात्रा की शुरुआत वृजभाषा की परम्परगत कविता से की थी और उनकी दशकों लम्बी लेखन-यात्रा ने आधुनिकता तक के कई पड़ाव देखे और तय किये थे- इसलिए उनके यहाँ परम्परा की ताक़त भी है, साथ ही समकालिक नयेपन को स्वीकारने का साहस भी| उन्होंने सदा अपने समय के साथ यात्रा की थी और अपने कई दूसरे समकालीनों की तरह उन्होंने अपने गद्य और कविता- दोनों को कभी ‘अप्रासंगिक’ या ‘अतीतबद्ध’ होने न दिया!
उनकी गद्य-रचनाओं में हमारे समय, समाज और आधुनिक-सभ्यता की अनेक चिंताएं हैं| ये काल्पनिक या वायवी चिंताएं ज़रा भी नहीं- विगत और आगत के प्रसंग में एक विचारशील आधुनिक मनुष्य के अनेक वैध-संदेह और उलझनें आप उनके गद्य-आलेखों में देख पाते हैं| वह जहाँ-जहाँ ज़रूरी है- एक आत्म-उत्तरदायी चिन्तक की तरह कई तरह के ज़रूरी प्रश्न उठाते और यथासंभव रचनात्मक हस्तक्षेप करते इन सवालों का समाधान खोजना चाहते हैं|
नन्द बाबू ने अपने आरंभिक छात्र जीवन से ही जिस समतावादी-समाजवादी अंतर्दृष्टि का विकास किया था- अंत तक प्रायः हर रचना में- चाहे वह गद्य हो या कविता, उस विचारधारा का ईमानदार निर्वहन भी हम बराबर देखते हैं| कविताओं में उनकी यह कोशिश ‘उत्सव के निर्मम समय’ में एक ‘ईमानदार दुनिया के लिए’ आगे देखने और चलने की कोशिश थी| वह जानते थे- ‘यह समय मामूली नहीं’, उनकी कविता वहां जाने की कोशिश थी जहाँ ‘उजाले की एक रेखा खिंची है’| कविता के माध्यम से वह अनुमान लगा सकते थे- “वे सोये तो नहीं होंगे!”
नन्द जी ऐसे अपवाद वरिष्ठ लेखक थे जिन्होंने अपने से उम्र, यश, और कुछ हद तक ‘प्रतिभा’ में कनिष्ठ लेखकों तक को चर्चा, साक्षात्कार, हर भाषण में बेहद स्नेहपूर्वक याद रखा और उन पर, उनके बारे में, जब-जब मौका लगा- लिखा भी| इस मायने में नन्द जी हमारे समय की कई प्रतिभाओं को आकृति देने वाले, उन्हें उत्साहित करने वाले एक बड़े उदारमना लेखक थे| मेरी एक कविता-पुस्तक “आप को यह जान कर प्रसन्नता होगी’ का ब्लर्ब उन्होंने लिखा था, मेरी दूसरी एक किताब पर पूरी समीक्षा भी- साहित्य अकादमी सहित कई आयोजनों और दूरदर्शन साक्षात्कारों में उन्होंने सार्वजनिक रूप से मेरे लिखे को खुल कर याद किया और सराहा- ये मुझे याद है! अपनी पत्रिका ‘बिंदु’ में कविताएँ छापते हुए एक ख़त में उन्होंने चेतावनी देते लिखा था- “तुम्हारी कवितायेँ बहुत अच्छी हैं – ‘बिंदु’ के नए अंक में जा रही हैं- मुझे पता नहीं तुम अभी विद्यार्थी हो या क्या- पर फैलता हुआ यश एक खतरा है- वह लुभाता है और लेखक को कहीं का रहने नहीं देता !” तब मैं दसवीं कक्षा का एक छात्र था- पर ‘लहर’ ‘कल्पना’ और ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाओं में छाप दिया गया था- शायद यही सब लक्ष कर उन्होंने ऐसा कहा हो !
‘आप को यह जान कर प्रसन्नता होगी’ के फ्लैप पर उनकी निम्नांकित टिप्पणी मेरे लिए आज भी मूल्यवान है- “हेमन्त शेष की कविता पढ़ कर बहुत से समीक्षात्मक मंतव्य प्रकट किये जा सकते हैं। उदाहरण के लिए कविता-प्रयोजन, सामाजिक-सरोकार और कथ्य की अहमियत के साथ वे सारे कलात्मक दावे, जो कविता की मुक्ति के और विचारधारा की जकड़न से छिटक जाने के पक्ष या विपक्ष में हो सकते हैं। लेकिन ऐसा कर के भी हम साधिकार यह नहीं कह सकते कि यही कविता लिखने की ऊर्जा या आकांक्षा है या कि रहस्य है जिसे बहुत से आलोचक जानने का अहंकार करते हैं।
विचारणीय यह है कि हेमन्त शेष की कविताओं का सम्मोहन क्या है ? दरअसल हेमन्त शेष के पास रचनाषील भाषा को प्रयोग में लाने का संकल्प और अद्भुत शक्ति है। उनकी कविता में हमें बनी-बनायी दुविधा ऩजर नहीं आती, जिसका विध्वंस हो रहा है या जिसके गिरते कंगूरों, विशाल गुंबजों को रंग-रोगन और नक्काशी की जरूरत हो। उनकी कविता में वैसी दुनिया भी नहीं है, जिसकी व्याख्या समाजशास्त्र या अर्थशास्त्र के सिद्धांतों पर होती है। यहां एक किस्म की स्वाधीनता हैः रचना की, प्रेम की अनंत यात्रा की, लौटने की, उल्लसित होने की, पछतावे की या प्रतीक्षा की, कुछ भी याद न रखने की और सब कुछ याद रखने की।
हेमन्त शेष की इस विषेशता की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है कि वे अपने भाषा-सम्मोहन को ‘‘ऐब्सर्डिटीज’ और अप्रासंगिक दृश्य-बिंबों से नहीं जोड़ते और न उस कल्पनाशीलता को अवरुद्ध होने देते हैं, जहां कविता के अनंत शक्ति-स्रोत हैं। उनकी प्रायः सब कविताओं में कल्पनाशीलता की वह आभा है, जो प्रायः विषाद, बेचैनी और ठिठुरते हुए अनुभवों के बीच से रास्ता बनाती है। कलात्मकता का सारा रहस्य यही है कि वह थकती हुई और एकआयामी, एक से चेहरे वाली दुनिया को भी कुछ न बचा सकने वाली उदासी से बचा लेती है।
हेमन्त की कविताओं की एक विशिष्टता यह भी है कि वे अपनी भाषा को लगातार जानी-पहचानी, विश्वसनीय और अक्लांत रखने की कोशिश करते हैं । मैं उनकी कविताओं की मोहिनी से बंधा हूं । -नन्द चतुर्वेदी”
क्या ऐसा कोई उपक्रम संभव है कि नन्द जी की सारी गद्य-रचनाएं अब एक जगह संकलित की जाएं और उस बड़े से संकलन में उनके नए-पुराने सब उपलब्ध पत्रों का भी एक अलग खंड हो- पत्र, जिनमें नन्द जी का मन-मानस हर बार बेहद बेबाकी, निश्छलता और ईमानदारी से खुलता दीखता था |
मेरे पास अपनी किताब भेजते हुए नंदजी ने १० दिसंबर, २०१२ को उदयपुर के अपने घर ३०, अहिंसापुरी, फतहपुरा से जो चिट्ठी लिखी थी उसे अपने मित्रों से नीचे साझा करते हुए मैं एक ऐसी विलक्षण शक्सियत नन्द चतुर्वेदी के न होने का संताप अनुभव कर रहा हूँ, जिनका मेरे जैसे मामूली लेखक से सघन संपर्क सन सत्तर के दशक से था- उनसे पत्राचार भी| अब जब दुर्भाग्य से नंदजी जैसे निष्कलुष व्यक्तियों के जीवंत सान्निध्य से हम सब लोग वंचित हैं- एक उत्सुक रचनाधर्मी, बेहद प्रभावशाली-वक्ता, दृष्टिवान-सम्पादक, और उन जैसे सहज किन्तु जीवंत साहित्यिक-व्यक्तित्व की कमी हमें सदा अखरती रहेगी!
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प्रिय हेमंत,
आपका ( या तुम्हारा, कुछ समझ में नहीं आता ) नया कविता-संग्रह मिला, जिसमें एक कविता मेरे लिए भी है! मैंने एक मामूली लड़के की तरह, बिना किसी कामना के, कविता लिखना शुरू किया था, और देखा आपने- उसने मुझे आज कितना ‘श्री-मान’ बना दिया है! सचमुच मुझे बिना किसी कारण के (कवित विवेक नहिं मोरे, सत्य कहहुं लिखि कागद कोरे ) मुझे आपकी आत्मीयता मिली है| मेरे लिए यह विरल ऐश्वर्य है|
दुनिया को मैंने किसी तात्विक-दृष्टि न देखा न समझा- जैसी मिली उसी में उलझा–उलझा रहा| उस से कुछ ‘विमुक्त’ होने का रास्ता ‘लिखना’ था- इसलिए लिखता रहा | लेकिन दुनिया कोई ‘रोमांस’ नहीं थी, वह विभाजित थी, वही त्रासदी, वही विभाजन समझ में आया| उस की कविता की|
‘सर्जना’ को, ‘क्रियेटिविटी’ को पहचानने की अदम्य आकांक्षा को विलुप्त नहीं होने दिया! निस्संदेह यह हज़ारों रूपों में फलवती होती रहती है| मैंने उसका एक रूप देखा, लेकिन दूसरे ने यदि दूसरा समुन्नत रूप, तो मुझे कुछ बुरा नहीं लगा| ‘सर्जनात्मकता’ वैयक्तिक स्वाधीनता है|
आपकी कविता इसी अर्थ में महत्वपूर्ण है कि वह किसी ठहरे हुए अर्थ की व्यंजना नहीं करती, नए अर्थों को तलाश करने का उत्साह देती है| इस कारण मैं मुद्दत से आपको अपने लिए एक आवश्यक कवि मानता रहा |
आपका ताज़ा संकलन मैं जल्दी ही पढ़ लूँगा, ऐसी आशा है| ‘राजकमल’ से अभी-अभी आयी पुस्तक भेज रहा हूँ| ये समय-समय पर लिखे आलेख हैं| किसी गहन ‘तत्ववाद’ पर केन्द्रित नहीं हैं| केवल दुर्विनीत समय की त्रासदी का सरल वृतांत हैं| पुस्तक और पत्र की पहुँच फोन पर दे दें| जयाजी को प्रणाम| शेष शुभ|
नन्द चतुर्वेदी
पुनश्च-
(आपकी) पुस्तक “ प्रपंच-सार-सुबोधनी” का नाम ऐसा क्लिष्ट नहीं होना था| वह श्रुति-मधुर भी नहीं| नाम तो सहज-स्मरणीय हो, दूसरों को सहज बना सकने जैसा, और उसे भी सहज-ग्राह्य!
मैं भी एक और कविता-संग्रह तैयार कर रहा हूँ- “आशा बलवती है राजन!”
-न.च.
सोमवार, 20 अगस्त 2012
शनिवार, 2 जून 2012
LIST OF WRITERS AND ARTISTS PUBLISHED IN KALA PRAYOJANA
सोमवार, 13 फ़रवरी 2012
चार कहानियाँ
चार कहानियाँ
हेमंत शेष
१.
घंटी
आज उन्होंने अपने वार्डरोब की सबसे महंगी साड़ी पहनी थी, बाल मेहँदी से रंगे थे, दो बार शैम्पू किया था, दो ही दिन पहले फेशियल करवाया था. सिर पर अशोक के पत्तों से सजे चार घड़े रखे प्राइमरी स्कूली बालिकाओं से तिलक लगवा कर भीड़ के नमस्कार स्वीकारतीं, बेफिक्र दिखने की कोशिश के बावजूद वह अपनी उदासी को छिपा नहीं पा रहीं थी! अपनी पेंतीस साल लंबी राज्य-सेवा से वह आज निष्कलंक रिटायर हो रहीं थी....सजे-धजे मंच पर आसन जमाये अतिथियों को मन मन में गालियाँ देता कर्मचारी-संघ का अध्यक्ष, माइक पर प्रशस्तिपत्र पढ़ रहा था- “....आप के कुशल और प्रेरणादायक नेतृत्व में हमारे दफ्तर ने सफलता की ऐसी-ऐसी अनदेखी ऊंचाइयां छुईं हैं, जिनका आपके कार्यभार संभालने से पहले किसी को गुमान न था! पेंतीस साल तक आपके प्रभावी-मार्गदर्शन में....”
दफ्तर के कई संगठनों उन्हें सम्मानपत्र भेंट किये थे और फूल मालाओं से लाद दिया था.... उनकी चमचमाती सरकारी कार का दरवाज़ा ड्राइवर ने आज और ज्यादा नम्रता से खोला, तीन पी.ए, चार स्टेनोग्राफरों, सात बाबुओं, और ग्यारह चपरासियों ने, एक के बाद एक झुक कर उनके पाँव छुए और वह अपने विदाई-समारोह के प्रभावशाली और गरिमापूर्ण ढंग से निपट जाने पर अभिभूत नज़र आने लगीं!
गुलाब की बड़ी-बड़ी मालाओं से लदीं जब वह घर पहुंचीं. आते ही खुद उन्होंने सम्मान-पत्र करीने से ड्राइंगरूम की शेल्फ में सज़ा दिए, बुके और फूलों के महंगे गुल्दस्ते यथास्थान सलीके से जमा दिए, ए सी चालू किया, और स्थानीय खबर-चैनल पर पर अपने विदाई समारोह की खबर सुनने के लिए टी वी का रिमोट हाथ में ले लिया...वह थकान सी महसूस कर रहीं थीं और उन्होंने चाहा तत्काल कोई एक गिलास पानी उन्हें पिला दे!
उन्होंने रिमोट एक तरफ रख दिया और चपरासी को बुलाने के लिए कोर्डलेस घंटी बजाई.... पर दूसरी दफा घंटी बजाने पर भी जब कोई नहीं आया, तो वह बेचैन नज़र आने लगीं...कुछ पल ठहर कर उन्होंने तीसरी लंबी सी घंटी बजाई. उन्हें बड़ी तिलमिलाहट हुई... दफ्तर के चार माली, दो ड्राइवर और पाँच नौकर उनके पास बरसों से थे, पर सर्वेंट क्वार्टर, बगीचे और पोर्च में सन्नाटा पसरा था... पेंतीस सालों में ये पहली दफा हुआ था कि घंटी बजाने पर भी कोई न आये! ये सोच कर कि शायद लोग आसपास ही कहीं हों, उन्होंने घंटी के बटन पर पैर रख दिया, इस पर भी जब घर में कोई हलचल नहीं हुई तो वह इस दफा अपना पूरा वज़न डाल कर घंटी के बटन पर खड़ी हो गईं.
घंटी की तेज कर्कश आवाज़ पूरे घर में गूँज रही थी....तभी उनके पेट में एक असहनीय दर्दनाक मरोड़ उठी, उनकी कनपटियाँ एकदम लाल हो गयीं, सांस यकायक फूली, सिर बुरी तरह भन्नाया, माथे पर पसीने की धारें बह आईं, दिल एकाएक बेहद जोर से धड़का, और वह- निर्जीव हो कर पेंतीस सालों से ड्राइंगरूम में बिछे महंगे सरकारी गलीचे पर लुढक गईं.....
***
२.
पहाड़
हर गाँव में एक पहाड़ होता है, जो उसी गाँव का पहाड़ कहलाता है. जहाँ आप को पहाड़ दिखे समझ लीजिए, उसकी तलहटी में कोई न कोई गाँव ज़रूर होगा. गांव वाले उसे देखते-देखते उस के इतने आदी हो जाते हैं कि अकसर उसी मौजूदगी को ही भूल जाते हैं, पर पहाड़ इस बात का कभी बुरा नहीं मानता! वह एक बहुत बड़े पुराने हाथी की तरह दृश्य में उपस्थित रहता है. गाँव के बच्चे खेल-खेल में बीसियों दफा इस पर जा चढ़ते हैं. उस पार के गाँव जाने के लिए भी लोगों को इस पर चढ़ना पड़ता है क्योंकि सड़क सड़क जाएँ तो चार किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा, वैसा झंझट कोई मोल लेना नहीं चाहता! औरतें भी ‘उस तरफ’ के बड़े हाट से सौदा-सुलफ लाने के लिए पहाड़ पर चढ़ कर आराम से उतर जाती हैं. अक्सर मवेशी चरते चरते पहाड़ की चोटी तक पहुँच जाते हैं और नीचे गाँव से ये पहचानना मुमकिन नहीं होता कि वे भैंसें किसकी हैं ? तब गाँव के लोगों को पहले अपने बाड़े या गाँव के आसपास जाकर गुमे हुए मवेशी की तलाश में निकलना पड़ता है! वहाँ से निराश हो कर वे फिर पहाड़ की तरफ जाते हैं. वे चोटी पर जा कर अपनी बकरियों को तुरंत पहचान लेते हैं जो ऊँचाई से बेफिक्र वहाँ चर रही होती हैं! उन्हें वहाँ पड़ौसी की सुबह से लापता गाय भी दिख जाती है जिसे वे बड़ी जिम्मेदारी से अपनी बकरियों के साथ ही नीचे उतार लाते हैं! पहाड़ से उतरी हुई गाय पहले जैसी ही होती है, सिर्फ उसकी पूंछ में झडबेरी के कुछ कांटे उलझे नज़र आते हैं, जिन्हें बच्चे तुरन्त निकाल फेंकते हैं. और तब गाय पुरानी गाय जैसी ही लगने लगती है. शाम होते न होते पहाड़ एक बहुत बड़े जंगी जहाज़ की तरह अँधेरे के समुद्र में डूबता नज़र आता है- तब उस पर कोई भी नहीं चढ़ता! झुण्ड बना कर दिशा-मैदान के लिए जाने वाली औरतें भी तलहटी से थोड़ी दूर बैठती हैं. रात को पहाड़ पर कोई लालटेन नहीं जलाता, जैसा हिन्दी कवि मानते हैं! शाम घिरते-घिरते गाँव का यह बहुत पुराना हाथी आँख से ओझल होने लगता है और देखते ही देखते गायब हो जाता है! हर रात लोगों को लगता है- उनके गाँव में कोई पहाड़ है ही नहीं.
-शहरों में ऐसा बिलकुल नहीं होता!
****
३.
चौथी तस्वीर
उनका सुनहरा महंगा फ्रेम धुंधला हो कर तीन-चार जगह से चटख गया था, शीशों पर तो इतनी धूल जमा हो गयी थी कि भीतर देख पाना ही नामुमकिन था. पीछे शायद बड़ी-बड़ी मकड़ियों के घर भी थे- जिनसे मुझे बड़ा डर लगता था. सालों से तीनों की झाड़-पौंछ नहीं की गयी थी- दीवाली पर भी नहीं, और वे हमारे हमारे ‘ड्राइंगरूम’ की न जाने कब से शोभा बढ़ा रहीं थीं! एक के बराबर एक लगीं तीन तस्वीरें- जिन्हें दादा पता नहीं कहाँ से लाये थे, दीवानखाने की सबसे सामने वाली दीवार पर इतने ऊपर लगीं थी कि मैं अपने ठिगने कद की वजह से उन्हें ठीक तरह देख भी नहीं पाता था!
मैंने दादा से, घर की सबसे पुरानी इन तस्वीरों के बारे में कई बार पूछा भी, पर कभी उन्होंने मेरे सवाल का कभी जवाब नहीं दिया कि आखिर वे तीन तस्वीरें हैं किन की ? लिहाज़ा, मैंने दादा से पूछना ही छोड़ दिया, पर घर के सबसे महत्वपूर्ण कमरे में इन तीनों की मौजूदगी से, मुझे भीतर ही भीतर जो भयंकर कोफ़्त थी, आखिर तक बनी रही!
पर वह सुबह जिंदगी में मैं शायद कभी नहीं भूल सकता, जब मैं स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहा था, दादा बेहद उत्तेजित, हाँफते हुए दीवानखाने में आये. उन्होंने बगल में बेलबूटेदार चिकने कागज़ में खूबसूरत लाल सुर्ख रिबन में बंधी एक चौकोर सी चीज़ दबा रही थी. उनका झुर्रियों भरा चेहरा किसी अदम्य उत्साह से दमक रहा था. आते ही उन्होंने, मुझे सब काम छोड़ कर घर की सबसे लंबी स्टूल, जिसे हम मज़ाक में “ ऊँट-कटेली ” कहते थे, आँगन से खींच कर लाने का हुक्म दिया!
मैंने आदेश की फ़ौरन पालना की! दादा आश्चर्यजनक फुर्ती से “ऊँट-कटेली” पर जा चढ़े, दीवार पर टंगी तीनों तस्वीरें उतार कर उन्होंने एक के बाद एक मुझे पकड़ाईं, और नीचे उतर आये.
मैं इतना आश्चर्यचकित था कि बस!
बरसों में वे तीनों तस्वीरें पहली दफा ज़मीन पर उतरीं थीं- पर ताज्जुब.... उनके पीछे न तो मकड़ियों के जाले थे, न काली बड़ी-बड़ी चिकत्तेदार मकड़ियाँ, जिनसे मुझे बेहद डर लगता था ! तस्वीरें जहाँ से उतारी गयी थीं, आसपास की धूल ने दीवार पर बस तीन शानदार फ्रेम बना दिए थे- अपने हमशक्ल. कमरे की दीवारों का रंग-रोगन उड़ जाने की वजह से तस्वीरों के नीचे रहे आये हिस्से, ज्यादा आकर्षक और गहरे दिख रहे थे. असल में वही रंग रहा होगा- हमारे दीवानखाने की दीवारों का- मैंने सोचा और स्कूल जाने का झंझट फ़ौरन छोड़ दिया!
दादा ने कहा – “जानता है, चुनावों के बाद आज चौथी दफा हमारे राज्य के नए राजा बदले हैं! अपने राशन की दुकान पर नए राजाजी की तस्वीरें मुफ्त में बांटी जा रही हैं.....सुनहरे फ्रेम में मंढीं....उन्होंने मुझे भी मांगे बिना- ये दे दी....देख तो सही कैसी शानदार तस्वीर है...पुरानी तस्वीरों की जगह कैसी फबेगी- ये अपने ड्राइंगरूम में...” और दादा ने लाल फीता एहतियात से खोला, चिकना कागज हटाया और मैंने देखा, एक बेहद मंहगे, बेलबूटेदार सुनहरे फ्रेम में जड़ा एक गंजा होता, काले कोट में, टेढी लंबी सी नाक वाला हास्यास्पद सा आदमी मेरे सामने था!
मैं नए मुखिया सूरत देख कर लगभग सन्न रह गया.
मैंने कोई जवाब नहीं दिया, मुड कर मैं दीवार से उतारी गयी पुरानी तीनों तस्वीरों के पास गया, जोर से फूंक मारी और जेब से रुमाल निकाल कर तीनों को साफ़ कर डाला!
उन तस्वीरों- चारों में वही, वही-हू-ब-हू बिलकुल वही एक गंजा होता, काले कोट में, टेढी लंबी सी नाक वाला हास्यास्पद सा आदमी मेरे सामने था!
*****
४.
झाड़ू
वह एक कुशल प्रशासक थीं. हर दफ्तर में अपने कामकाज और व्यवहार की नहीं, उन्होंने अपने ‘सफाई-पसंद’ होने की अमिट छाप ज़रूर छोड़ी. जहाँ-जहाँ वह पदस्थापित रहीं, दफ्तर के बाबू और अफसर, सब, रोजमर्रा सरकारी कामकाज की बजाय, साबुनों- डिटर्जेंटों और फिनाइल के प्रकारों, पौंछा लगाने की सही तकनीकों, डस्टर की सही-आकृति, कूड़ेदानों की स्थिति, शौचालय की टाइलों और फर्श की धुलाई वगैरह जैसे गंभीर-विषयों की ही चर्चा किया करते थे. कलफ लगे साफे में एक चपरासी, उनके पीछे-पीछे, एक डस्टबिन लिए चलता था. मजाल क्या, जो एक भी चीज़ यहाँ-वहाँ बिखरी नज़र आ जाए! अगर फर्श पर माचिस की एक बुझी हुई सींक भी नज़र आ जाए तो वह बुरी तरह बिफर जातीं. शौचालय अगर हर दो घंटे बाद एसिड से साफ़ न किये जाएँ, तो उनका पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचता, रोज सबेरे नौ और शाम चार बजे, दफ्तर के सारे बाबुओं और अफसरों को अपने कमरे में बुला कर वह सफाई के महत्व को ले कर भाषण पिलातीं! एक दिन पता नहीं कहाँ से उन्होंने पढ़ लिया कि “सर्वश्रेष्ठ सफाई-व्यवस्था” के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था, ‘आई एस ओ’ प्रमाणपत्र देने वाली है!
मुकाबला बेहद बड़ा था-कड़ा भी, पर एक अखिल-भारतीय अँगरेज़ ‘आई. सी. एस.’ की तरह उन्होंने चुनौती को स्वीकारा. दफ्तर में आनन-फानन में नए सफाई-कार्मिकों की भर्ती की गयी और तभी से उनका सारा वक्त प्रतिभा और ध्यान इसी तरफ लग गया! शाम को देर तक घर न जातीं, देर रात तक पौंछा वालों की टीम के साथ दीर्घाओं, छतों और कमरों की झाड़ू-बुहारी करवाती रहतीं....पर लोग थे जैसे उन्हें अपने मकसद में कामयाब ही होने देना नहीं चाहते थे! कभी कोई गाँव वाला बीड़ी का ठूंठ फर्श पर फ़ेंक देता तो कभी कोई वकील, बस का पुराना टिकिट या माचिस की खाली डिब्बी! वह घटनास्थल पर भुनभुनाती आतीं और गांधीवादी तरीके से कचरा उठवा ले जातीं! पतझड़ का मौसम तो जैसे जान लेने को आमादा था....हवा के साथ टहनियों से टपके भूरे-पीले पत्ते गिरते रहते और यहाँ वहाँ उड़ते-फिरते. उन्हें ठिकाने लगाने के लिए वह साड़ी चढ़ा कर उनके पीछे दौड़तीं. एक बार तो उनकी तबीयत हुई कि सफाई का अनुशासन तोड़ने वाले सब पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलवा दें, पर दफ्तर के बड़े बाबू ने उन्हें ऐसा न करने की राय दी क्यों कि सरकारी ‘वन महोत्सव’ दस दिन बाद ही आने वाला था और तब हमें पेड़ों की ज़रूरत पड़ सकती थी. मुआयने का दिन ज्यों ज्यों नज़दीक आता गया उनकी नींद-चैन-भूख गायब होती गयी. कभी आँख लगती, तो फर्श की टाइलों पर छूट गए अदृश्य धब्बे उन्हें झंझोड कर उठा देते!
आखिरकार सफाई के अंतर्राष्ट्रीय-विशेषज्ञ हमारे दफ्तर पहुँच ही गए. उन्होंने हर कोने का बड़ी बारीके से मुआयना किया था. हम सब बाबू लोग दम साधे अपनी अपनी सीटों पर बैठे ये सब देख ही रहे थे कि तीन जूनियर क्लर्कों ने, जो देर से पेशाब रोक कर बैठे थे, आ कर हमें बताया कि सब कुछ बेहद सफलता से निपट गया है, और अब कुछ देर बाद टीम ”मैडम” का इंटरव्यू करने उनके कमरे में जाएगी, जहाँ उन लोगों के लिए शानदार चाय-पार्टी का आयोजन रखा गया था. सीधे दार्जिलिंग से मंगवाई गयी चाय बनवाने काम मुझे सौंपा गया था, इसलिए भागता हुआ मैं मैडम के कमरे की तरफ दौड़ा, ताकि उनके ‘नवीनतम निर्देश’ नोट कर लूं! मैंने उनके दरवाज़े पर दस्तक दी और प्रविष्ट हो गया.
उनकी कुर्सी खाली थी, मैंने उनके रेस्टरूम की तरफ देखते हुए खंखारा, वह कहीं नहीं थीं- न वेटिंग-लाउंज में, न अपने कमरे के चमचमाते शौचालय में, उन्हें दफ्तर में हर जगह खोज कर हांफता-हांफता वापस पहुँचा तो उनके कमरे में फिनाइल की तेज गंध छाई हुई थी..और ये देख कर मैं जड़ हो ही गया कि मैडम की कुर्सी पर उनकी जगह पर ठीक उनकी लम्बाई की एक आदमकद सींक-झाडू बैठी थी !
उन्हीं की आवाज़ में मुझे डाँटते हुए झाडू बोली - “ऐसे क्या देख रहे हो-सुधीन्द्र! टीम कहाँ है? जाओ- पेंट्री में जा कर देखो- चाय कहीं ठंडी न हो गयी हो!”
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हेमंत शेष
४०/१५८, स्वर्ण पथ, मानसरोवर
जयपुर-३०२०२०
फोन: ९३१४५०८०२६
बुधवार, 1 फ़रवरी 2012
राजस्थान में आधुनिक-मूर्तिशिल्प
राजस्थान में आधुनिक-मूर्तिशिल्प
यह एक विसंगति ही कही जा सकती है कि राजस्थान में चित्रांकन और शिल्पकला की सुदीर्घ परम्परा होने के बावजूद, मूर्तिकला जैसे प्रमुख कला-रूप को अपनी आजीविका बना लेने वाले शिल्पी तो सैकड़ों की संख्या में हैं, पर इसे अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति का पहला माध्यम कहने वाले ‘अव्यावसायिक‘ मूर्तिकार, बहुत सीमित। यहाँ इस चीज़ के लिए उत्तरदायी कारणों के अनुसन्धान में न भी जाएँ, तो यह अहसास सुखद नहीं कि शिल्पांकन और ललित-कलाओं के धनी इस प्रदेश में संख्या में आज भी ऐसे मूर्तिकार कम हैं, जिनके कामों को भारतीय-आधुनिक-मूर्तिकला की ‘पहली-पंक्ति‘ में रखा जाता हो ।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें, तो अकेले जयपुर में ही मूर्तिकला की परम्परा, रचना और शिक्षा के स्तर पर बहुत पुरानी है। जयपुर के किशनपोल बाज़ार में स्थित राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स एन्ड क्राफ्ट्स से, जिसकी स्थापना, सन् 1866 ई0 में सवाई रामसिंह (द्वितीय) के शासनकाल में ललित-कलाओं के उन्नयन और प्रोत्साहन की दृष्टि से की गई थी, बहुत से प्रतिष्ठित चित्रकार और मूर्तिकार-शिक्षक संबंधित रहे हैं।
जयपुर में मूर्तिकला की परम्परा
कई दशकों से जयपुर के ‘सिलावटों के मोहल्लों‘ में परंपरागत शैली में संगमरमर की देव-प्रतिमाओं का अत्यंत विशाल पैमाने पर व्यावसायिक-निर्माण भी जारी है, फिर भी राजस्थान, इस समीक्षक की विनम्र राय में, समकालीन भारतीय-कला परिप्रेक्ष्य में एक ‘पिछड़ा‘ हुआ राज्य ही है। दक्षिण भारत के मूर्तिकारों की तरह यहाँ पारंपरिक शिल्पशास्त्र के बंधन उतने कठोर नहीं।
इतिहास के झरोखे से-
सुप्रसिद्ध चित्रकार रामगोपाल विजयवर्गीय (1905-2003) से चर्चा करते हुए जयपुर के विख्यात् परम्परागत वयोवृद्ध मूर्तिकार गोपीचन्द्र मिश्रा (1908-1989) ने एक जगह अपने समकालीन मूर्तिकारों का स्मरण करते हुए कहा था ......मालीराम शर्मा, लच्छीराम जी, गुलाबचन्द्र शर्मा, हीरालाल जी, मोहनलाल जी, बाल जी, हमारे युग के प्रतिष्ठित कलाकार थे। उनका किया हुआ काम, आज भी अद्वितीय समझा जाता है। कौन उनके जैसा साधक और परिश्रमी होगा ? वे किसी की गुलामी नहीं करते थे....उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा, अपनी साधना के द्वारा ही अर्जित की थी।‘‘
असल में यह वक्तव्य सिर्फ मूर्तिकारों के नाम ही नहीं गिनाता, अपितु यह टिप्पणी मूर्ति-निर्माण की कठिन-प्रक्रिया और उसके पीछे परम्परागत शिल्पियों की गहरी अनुरक्ति को भी रेखांकित करती है। यहाँ यह भी लिखने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि एक मूर्तिकार का अपनी रचना और उसके माध्यम के प्रति जुड़ाव, अगर चित्रकार की तुलना में किसी तरह ‘अतिरिक्त‘ या अधिक नहीं, तो कम से कम वह अधिक श्रमसाध्य, सघन और बहुआयामी तो है ही। अतः आधुनिक मूर्तिकला के विकास की चर्चा करने से पहले हमें परम्परा के पोषक उन मूर्तिकारों की ओर भी अवश्य देखना होगा, जिनकी कृतियाँ अपने काल-खंड के लिए प्रासंगिक थीं, हालांकि तब के पारम्परिक शैली में मूर्तियाँ बनाने वाले हमारे पुराने शिल्पी, धार्मिक या फिर यथार्थवादी निरूपण की ही ओर अधिक आकृष्ट होते थे।
जयपुर के पारंपरिक मूर्तिशिल्पियों का योगदान
यों जयपुर के सुविख्यात् ‘मूर्तिकार-मोहल्ले‘ ने अनेक पारंपरिक शिल्पी कला-जगत् को दिए हैं, पर देव-मूर्तियों के ‘युद्ध स्तर पर‘ बनाए जाने का यह एक प्रकट ‘दुष्प्रभाव‘ ही कहा जाएगा, जिसके प्रभामंडल की चकाचौंध ने सैकड़ों मूर्तिकारों को एक खास तरह से मूर्ति गढ़ने और एक ही दिशा में सोचने वाले 'व्यवसायोन्मुख कारीगरों' में बदल डाला।
‘जयपुर: कला और कलाकार-निर्देशिका‘ (1978) में उस्ताद मालीराम शर्मा (1946 में निधन) का नामोल्लेख करते हुए कहा गया है- ‘‘......मालीराम जी को अपने समय का माइकेल ऐन्जिलो कह दिया जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। बिल्कुल देशी ठाठ में यह यथार्थवादी शैली में अच्छे योरोपीय मूर्तिकारों के टक्कर की रचनाएँ बनाने में सक्षम थे...‘‘
यदि यह वक्तव्य एक प्रकार से अतिरंजित भी कहा जाए तब भी यह बात तो प्रकट ही है कि मालीराम शर्मा का नाम परम्परागत मूर्तिशिल्पियों में बड़े आदर से लिया जाता रहा है। वह लम्बे अरसे तक स्कूल ऑफ आर्ट्स, जयपुर में मूर्तिकला के शिक्षक रहे, किन्तु बहुत प्रयासों के बावजूद इस समीक्षक को इस सरकारी संस्था में उनके द्वारा बनायी कोई मूर्ति या उसका चित्र देखने को नहीं मिला।
ठीक इसी तरह बंगाल मूल के तारापदो मित्रा (टी.पी.मित्रा, 1913-1977) ने भी इसी संस्था में कई वर्ष रह कर यथार्थवादी अंकन, विशेष रूप से ‘क्ले-मॉडलिंग‘ के क्षेत्र में ऐतिहासिक काम किया । पोर्ट्रेट-अंकन में टी.पी. मित्रा को विशेष महारत हासिल थी, और इनके बहुत से शिष्य, जो आज मूर्तिकला की दुनिया में हैं, इनके तकनीकी मार्गदर्शन में मॉडलिंग और पोर्ट्रेट-निर्माण की कला सीख सके।
यहाँ उस्ताद मालीराम शर्मा के पौत्र लल्लूनारायण शर्मा (1924, अब दिवंगत) टी.पी. मित्रा के शिष्यों में उल्लेखनीय हैं, जो बाद में आर्ट स्कूल ही में मूर्तिकला के प्रशिक्षक बने। राजस्थान ललित कला अकादमी की पहली वार्षिकी में अपने मूर्तिशिल्प के लिए पुरस्कृत लल्लू नारायण शर्मा ने राष्ट्रीय नेताओं की विशाल प्रतिमाओं के निर्माण से अपनी पहचान बनाई। उनकी बनाई आदमकद मूर्तियां, आगरा, इटावा, हरिद्वार, नवलगढ़ और बनारस में कई जगह सार्वजनिक स्थानों पर लगाई गईं हैं ।
परम्परागत शिल्पियों में गोपीचन्द मिश्रा का काम भी महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। शिल्पाचार्य नर्मदाशंकर के निर्देशन में अपनी कला का विकास करने वाले इस शिल्पी ने बड़ौदा में रह कर जहाँ कोल्हाटकर जैसे कलाविदों से मूर्तिकला की आरंभिक दीक्षा ग्रहण की, वही अपनी कार्यस्थली जयपुर के ‘मूर्ति-मोहल्ले‘ में लौट कर आजीविका के लिए देवी-देवताओं की परम्परागत मूर्तियों के अलावा संगमरमर और प्लास्टर ऑफ पेरिस में कई यथार्थपरक मूर्तिशिल्प भी बनाए। ‘माँ और बालक‘, ‘शिवशक्ति‘, ‘केश-विन्यास‘, ‘गायक‘ ‘ममता‘ आदि उनके कुछ ऐसे ही शिल्पांकन हैं, जिनमें हम एक पुराने शिल्पी की खूबियों को देख और सराह सकते हैं। ‘सती-शिव‘, ‘गणेश‘, ‘राम‘ और ‘कृष्ण‘ जैसे रूढ़-विषयों के अलावा उन्होंने संपेरों , साधु-सन्यासियों और साधारण व्यक्तियों के कई शिल्प, प्लास्टर ऑफ पेरिस में भी बनाए । हालाँकि मूलतः उनकी कला में पारंपरिकता का आग्रह ही प्रबल था, किन्तु यदा-कदा उनकी कला में नए और अब तक अछूते विषयों का चित्रण करने की जिज्ञासा भी थी।
अकाल निधन से रामरतन मिश्रा अधिक रचनाएं न कर सके, किन्तु 'यथार्थवादी' अंकन के क्षेत्र में उन्होंने भी अपने पिता गोपीचन्द्र मिश्रा से प्रेरणा ली। वह दो बार राज्य अकादमी से पुरस्कृत भी हुए।
व्यक्ति-चित्रण (पोर्ट्रेट) के एक सिद्धहस्त मूर्तिकार महेन्द्र कुमार दास की चर्चा भी यहाँ प्रासंगिक होगी, जो तीस वर्षों से भी अधिक समय से राजस्थान में कार्यरत रहे थे। जयपुर के स्टेचू-सर्किल पर स्थापित सफेद संगमरमर में बनायी गयी सवाई जयसिंह (द्वितीय) की 12 फिट ऊंची प्रतिमा इनकी प्रसिद्धतम कृतियों में से एक है। कई बड़े व्यावसायिक घरानों और संस्थाओं के लिए उन्होंने प्रतिमाएँ निर्मित कीं।
सन 'पचास के दशक में यहाँ नारायण लाल ‘जैमिनी‘ जैसे मूर्तिशिल्पी भी सक्रिय थे। जैमिनी द्वारा निर्मित संगमरमर का ‘हाथी‘ उनकी अंतिम और सर्वाधिक विशाल रचना है। इन मूर्तिकारों के अलावा यथार्थवादी अंकन के क्षेत्र में अय्याज़ मोहम्मद (1936-?) आनन्दी लाल वर्मा (1936-?) ब्रजमोहन शर्मा (1932-?) सोहन लाल अत्री (1921-?) आदि की रचनाएं भी राज्य के मूर्तिकला परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
आधुनिक संवेदना की पहल :
राजस्थान में अपेक्षाकृत अधिक ‘साहसी‘ कृतिकारों का नामोल्लेख आवश्यक न हो तो इस समीक्षक की राय में कुछ पारंपरिक मूर्तिकारों ने भी यथार्थवाद और फिर, आधुनिकता के लिए अपने शिल्पों की प्रकृति में परिवर्तन किया। कुछ मूर्तिकारों ने सीधे ही नए कला-मूल्यों के प्रतिपादन में पहल की ।
सन् साठ तक मूर्तिकला यहाँ पूरी तरह परंपरा से प्रभावित थी, किन्तु सन् 1960 के बाद, राजस्थान की मूर्तिकला में आधुनिक और नई संवेदनाएं प्रविष्ट हुईं। उस समय के मूर्तिकारों में ललिता मिश्रा, गंगाराम वर्मा, अर्जुनलाल वर्मा, ओमप्रकाश नाठा, उषा हूजा, हरिदत्त गुप्ता, आनन्दी लाल वर्मा जैसे कई लोग थे।
इसी अवधि में परम्परागत माध्यम-संगमरमर को छोड़ कर दूसरी चीजों की ओर भी मूर्तिकारों का ध्यान आकर्षित हुआ।
हरिदत्त गुप्ता ने काष्ठ में मानव आकृतियों का विभिन्न मुद्राओं में चित्रण किया, तो उषा हूजा ने सीमेंट में। यहाँ प्रसंगवश ऐसे मूर्तिशिल्पियों पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया जाना उचित होगा, जिनकी रचनाओं के माध्यम से राजस्थान के कला-परिदृश्य में आधुनिक परिवर्तन की आहट सुनाई देती है।
लंदन में लगभग पाँच वर्ष तक मूर्तिकला की आरंभिक शिक्षा ले चुकी उषारानी हूजा (1923) के लिए ‘तकनीक और माध्यम के मिजाज को अधिकाधिक जानना‘ अच्छी मूर्ति बनाने के लिए एक आरंभिक शर्त है। विश्वविख्यात् शिल्पियों के शिल्पों की गहरी जानकारी रखने के बावजूद उन्होंने मूर्तिकला की दुनिया में अपना ‘भारतीय-शैली‘ का रास्ता खुद बनाने की कोशिश की। उनके ‘व्यावसायिक‘ तौर पर किए गए काम को छोड़ भी दें, तब भी महिला मूर्तिकारों में उनकी जगह विशिष्ट रही है।
1955 से विभिन्न आकारों की लगभग 40 मूर्तियां इन्होंने राजकीय और निजी संस्थानों के लिए कमीशन कीं। उनके बड़े आकार के मूर्तिशिल्प, भारत में दिल्ली, जयपुर, भीलवाड़ा, मुम्बई, जोधपुर और कोटा में ही नहीं, वाशिंगटन, स्वीडन, फिलीपाइंस जैसी जगहों पर भी लगे हैं। वह अपनी कला की बुनियादी प्रेरणा मानवाकृतियों और मानवीय गतिविधियों को मानती हैं।
‘‘मुझे अपनी रचनाओं के विषय के लिए कहीं दूर नहीं जाना पड़ता, क्यों कि मेरी मूतियों के विषय तो मेरे आसपास ही बिखरे पड़े हैं।‘‘ वह कहती हैं। उषारानी हू़जा (जन्म 18 मई 1923) ने राजस्थान में रहते हुए आधी सदी से भी ज़्यादा अरसा एक रचनाशील मूर्तिशिल्पी के रूप में बिताया है। दर्शनशास्त्र में सैन्ट स्टीफैंस कॉलेज से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त इस शिल्पी को मूर्तिकला में दिलचस्पी कॉलेज के उन छात्रों को देख कर पैदा हुई, जो दिल्ली पॉलीटैक्नीक में शिल्पांकन सीख रहे थे।
लिहाज़ा 1949 से 1954 के बीच उषा हूजा ने इंग्लैंड (लन्दन) के रीजेन्ट स्ट्रीट पॉलीटैक्नीक में दाखिला ले लिया, ताकि वह मूर्तिकला के सिद्धान्तों और कला का विधिवत् प्रशिक्षण ले सकें। यह आकस्मिक नहीं था कि इंग्लैंड-प्रवास के दौरान उन पर आधुनिक मूर्तिकारों हेनरी मूर, ऐफ्टीन, मैलौल, ऐलैग्जैंडर कैल्डर, पिकासो, मोदिग्लियानी, और ब्रांकुसी जैसों के अलावा भारतीय शिल्पकला का भी गहरा असर पड़ा।
बी.बी.सी.लन्दन में काम कर रहे भूपेन्द्र हूजा से 1949 में विवाह के बाद उषा हूजा ने 1954 में भारत लौट कर 1955 में दिल्ली के प्रगति मैदान में ‘इंडियन इंडस्ट्री फेयर‘ के लिए प्लास्टर माध्यम में 6 फीट ऊंचा मूर्तिशिल्प ‘पावर ऐंड इंडस्ट्री‘ अन्य 4 कलाकारों के साथ मिल कर बनाया। इसी तरह फिर 1958 में इसी तरह के मेले में उन्होंने एक और शिल्प, प्रगति मैदान दिल्ली में बनाया। वह 1958 में राजस्थान आईं और 1959 से जयपुर में बस गयीं ।
जयपुर में उनकी कला-यात्रा ने कई महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। उन्होंने कई माध्यमों में कलाकृतियों की सर्जना की जिनमें कांस्य, सीमेन्ट-कंक्रीट, लकड़ी, प्लास्टर ऑफ पेरिस, स्क्रैप-मैटल और फाइबर-ग्लास जैसे माध्यम हैं। इस अवधि में उन्होंने श्रमिकों, खदान-मजदूरों, चिकित्सकों, शोधार्थियों, पुलिसकर्मियों आदि को विषय बना कर कई शिल्पों की रचना की। उषा हूजा की अपेक्षाकृत ज़्यादा जानी पहचानी रचनाओं में के विषयों में (ऊर्जा और उद्योग) ‘पावर और इंडस्ट्री‘, ‘कृषक‘, ‘कार्यशील श्रमिक‘, ‘पुरुषार्थी‘, ‘अणुशक्ति‘, ‘चेतक‘, ‘परिवार‘, ‘पणिहारिन‘, ‘खेल और खिलाड़ी‘, ‘नर्तक‘ आदि रहे हैं। बाद के कला दौर में उन्होंने धातु और स्क्रैप मेटल में अमूर्तन की तरफ़ बढ़ते हुए अपेक्षाकृत छोटे आकार में शिल्प-रचनाएँ कीं।
अप्रेल, 1996 में जयपुर के जवाहर कला केन्द्र की कला दीर्घा में उनकी आधी सदी लम्बी मूर्ति-यात्रा की एक ‘बड़ी‘ प्रदर्शनी आयोजित की गई थी। यों उनके काम की प्रदर्शनियाँ दिल्ली और जयपुर के अलावा कैम्ब्रिज, लंदन, लिवरपूल, डर्बी, न्यूपोर्ट (वेल्स) और मॉरिशस में हुई हैं तो बम्बई (मुम्बई) नागपुर आदि में भी उनका काम प्रदर्शित हुआ है। उनके इधर के बरसों की पिछली बड़ी प्रदर्शनी नई दिल्ली में 'इंडिया हैबिटाट सेन्टर' में 2005 में आयोजित की गई थी। जनवरी, 2007 में भी 'जयपुर विरासत उत्सव' के अवसर पर उनकी कुछेक रचनाएँ जवाहर कला केन्द्र में प्रदर्शित थीं।
उनके सार्वजनिक मूर्तिशिल्पों की याद करें तो 1963 में पं0 जवाहरलाल नेहरू द्वारा विमोचित ‘शहीद-स्मारक‘ (पुलिस स्मारक) के अलावा रवीन्द्र मंच, जयपुर में प्रदर्शित 9 फीट लम्बा कांस्य रिलीफ़ पैनल ‘रवीन्द्र‘ (1969) सन्तोकबा दुर्लभजी अस्पताल, जयपुर में लगा ‘डाक्टर और मरीज‘ (1972) सवाई मानसिंह अस्पताल, जयपुर में प्रदर्शित ‘माँ और बच्चा‘ (1975) नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान केन्द्र में स्थापित ‘रिसर्च-स्कॉलर‘ (1979) रामगंज मंडी (कोटा) में लगा ‘श्रमिक‘ (1973) जावर माइन्स, उदयपुर में 1975 में स्थापित ‘माइनर्स मॉन्यूमैन्ट‘ राणा प्रताप सागर बांध, कोटा में 1980 में निर्मित ‘श्रमिक‘ 1989 में निर्मित ‘अणुशक्ति‘ (रावतभाटा अणु ऊर्जा इकाई, कोटा) गरुड़ (1987) ( जो हवाई अड्डा चौराहा, कोटा से पता नहीं क्यों अब हटा दिया गया है ) के अलावा इन्दिरा बाज़ार जयपुर में निर्मित ‘पुरुषार्थी‘ और सन् 2000 में बनाया सरदार पटेल का मूर्तिशिल्प आदि हैं। उनके ‘छोटे‘ आकार के मूर्तिशिल्पों में ‘चेतक‘ (अब वाशिंगटन में), जवाहर लाल नेहरु का पोर्ट्रेट (भारत सरकार द्वारा मॉरिशस को भेंट) लौह-शिल्प ‘कुलाँचे भरता घोड़ा‘ (ऐम.जी.डी. स्कूल, जयपुर) मुम्बई में ‘फैक्ट्री मजदूर‘ और जोधपुर में लगा ‘घूमर‘ हैं। सत्तर के दशक में उन्होंने स्क्रैप-मैटल की झलाई के कुछ एक शिल्प बनाए।
1975 में उषा हूजा की रचनाशीलता ने अपनी बीमारी के दौरान छंदमुक्त कविताएँ लिखने पर भी ध्यान लगाया और तभी उनकी कलाकृतियों के चित्रों तथा अंग्रेज़ी कविताओं का एक संग्रह ‘साँग्स ऐंड स्कल्प्चर‘ प्रकाशित हुआ। वह 1960, 1980 तथा 1990 के दौरान राजस्थान ललित कला अकादमी की सदस्य रही हैं। प्रख्यात कला समीक्षक हेमंत शेष ने 1974 में उषा हूजा की कला पर टिप्पणी करते हुए अपने समीक्षा-स्तंभ में लिखा था- ‘‘इनके अधिकाँश शिल्प, जीवन की गति और लय की ही अभिव्यक्ति हैं!‘‘।
उनकी सारी कला का लक्ष्य जैसे जीवन की विविध मुद्राओं की गत्यात्मकता प्रदर्शित करना ही रहा है। वह कर्मशील जीवन के स्पंदन और क्रियाशीलता की मूर्तिकार हैं। कथानक के लिहाज से उनकी यह एक परिचित दिशा है- चाहे मूर्तियों का आकार या माध्यम कुछ भी हो। वह हमें अक्सर परिचित कराती रही हैं- गतिशील आकारों के एक अनगढ़ सौन्दर्य से, जो आकस्मिक भी है, और अपारंपरिक भी।
उनकी कृतियों में बरबस आई ‘अनगढ़ता‘ को ले कर साधारण प्रेक्षक के मन में कई प्रश्न हों, क्योंकि इन के बाद के शिल्पों में अपेक्षित ‘फिनिशिंग‘ या परिष्कृति का अक्सर अभाव है। विशेष रूप से ऐसे लोग, जो मूर्ति को भूलवश आकृति का ‘फोटोग्राफिक रूपांतर‘ मानते हों, उषा हूजा के धातु में बने शिल्पों को शायद स्वतःस्फूर्त या ‘आकस्मिक खोज‘ से निकाल आए नतीजों के तौर पर देखना चाहें, पर हमें उनके काम की अपनी भंगिमा का ज्ञान, शिल्पों की रचना-सामग्री के मामूलीपन और खुरदरेपन से बखूबी हो सकता है। अनावश्यक साज-सज्जा जैसे उनका अभीष्ट है ही नहीं। हाँ, सीमेंट माध्यम में वह इस दिशा में अपेक्षाकृत ज्यादा सजग हैं, परन्तु सन् सत्तर के बाद से वह बिना किसी ‘महँगे‘ माध्यम का इंतजार किए धातु और स्क्रैप के प्रकट तौर पर ‘अनुपयोगी‘ टुकड़ों को झाल कर एक अलग तरह का सौन्दर्य रचती रहीं हैं ।
उनके शिल्पों की एक और उल्लेखनीय बात है- उसका असाधारण ‘पुरुषोचित‘ भाव। स्त्री-मूर्तिकारों में सहज अपेक्षित अलंकरणप्रियता, सजावटीपन और कुछ हद तक उसकी ‘कमनीयता‘ से अलग, उषा हूजा के मूर्तिशिल्पों में इसके विपरीत, एक ‘पुरुषोचित-ठोसपन‘ और ‘उद्दाम-घनत्व‘ है।
अन्य प्रमुख रचनाकार
उन्हीं के समान दूसरी महिला-शिल्पी, ललिता मिश्रा, आरम्भ में मूर्तिकला के क्षेत्र में, अत्यन्त आशाजनक ढंग से रचना-कर्म के लिए अग्रसर र्हुइं थीं, किन्तु ‘अज्ञात‘ कारणों से ललिता मिश्रा ने एकाएक काम बन्द कर दिया, लिहाजा महिला मूर्तिशिल्पियों में एकमात्र सक्रिय रचनाकार उषा रानी हूजा ही कही जा सकती हैं। सुमन गौड़ (1970) जो मूर्तिकार अशोक गौड़ की पत्नी हैं, भी एक मूर्तिकार रही हैं। बाद की पीढ़ी में अजमेर की महिला-शिल्पी प्रिया राठौड़ और सुमन गौड (जयपुर) का कुछ काम प्रभावशाली है।
यों किसी स्मृति या आकृति से हमें न जोड़ सकने वाले पूर्णतः ‘अमूर्त‘ शिल्प भी अर्जुन लाल प्रजापति (1956-) मुकुट बिहारी नाठा (1950-) जवाहर मिश्र (1949) राजेन्द्र आर. मिश्र (1955-) सुमहेन्द्र (1943-) हर्ष छाजेड़ (1952) नरेश भारद्वाज (1964) रूपचन्द्र शर्मा (1965) भूपेश कावडिया (१९७४) जैसे शिल्पियों ने बनाए हैं, किन्तु आधुनिक मूर्तिशिल्पी, साधारणतः मानवीय मुद्राओं में ही अपनी रचना के अर्थ-संकेत खोजते हैं। हरिदत्त गुप्ता से ले कर अंकित पटेल तक की मूर्तिकला इसी बात का प्रमाण है।
हरिदत्त गुप्ता ने 1965 के बाद से लकड़ी में नारी-आकारों को विशेष अंतरंगता और परिवर्तित मुद्राओं के साथ प्रस्तुत किया था। विषय के तौर पर भले ही तब हरिदत्त गुप्ता बहुत नए या ‘अपारंपरिक‘ नहीं थे, पर हेनरी मूर ने ‘लेटी हुई मानव-आकृतियों‘ के जरिए दुनिया भर के मूर्तिकारों को सोचने और मानवीय मुद्राओं को अभिव्यक्त करने की जो एक युगान्तरकारी दृष्टि सौंपी थी, वही हरिदत्त गुप्ता जैसे शिल्पकारों की भी प्रेरणा बनी। मुद्राओं की विविधता और माध्यमगत कौशल उनके शिल्पों में देखने योग्य था। कुल मिला कर, वे अपने समय की अग्रगामी संचेतना से सम्प्रक्त रचनाएं थीं, इस तथ्य के बावजूद कि हरिदत्त गुप्ता अक्सर प्रकृति में सहज रूप से प्राप्त वृक्षों और वनस्पतियों के भीतर ही मानव-आकृतियों का साम्य ढूंढ कर थोड़ी बहुत फिनिशिंग और काट-छाँट के बाद उसे प्रदर्शनीय बना दिया करते थे।
एक अन्य संभावनाशील मूर्तिशिल्पी, जो कई वर्ष से राज्य से बाहर रहे, और जिनके काम में किसी समय असाधारण व्यंग्यात्मकता थी, वह हैं गोरधन सिंह पँवार। पँवार (1938) अनेक वर्षों तक जयपुर में रहे और बरसों गोआ सरकार की राज्यसेवा में भी। इस समीक्षक को यह जानकारी नहीं कि पँवार ने राजस्थान छोड़ने के बाद मूर्तिकला के क्षेत्र में कौन से नए अनुभव अर्जित किए, किंतु शायद सन् 1978 में इनकी कला पर प्रतिक्रिया देते हुए हेमंत शेष ने उनके शिल्पों की उल्लेखनीयता और उद्देश्यात्मक-सुन्दरता इस चीज़ में निहित देखी थी कि वे बहुत अधिक ‘वाचाल‘ भी थे। तब मिट्टी में रचे गये गुब्बारे आकार के मूर्तिशिल्पों से गोरधन सिंह पँवार ने समकालीन राजनीति और नेताओं के चरित्र पर अत्यन्त सटीक व्यंग्य किए थे।
बहुत छोटा सिर और विशालकाय तोंद वाले, कुर्सी को ले कर लड़ते नेताओं की मुद्राएँ, हमें आज भी याद हैं। पँवार की वे कृतियाँ समसामयिक राजनीतिक-सामाजिक विद्रूप पर कड़ी व्यंग्यात्मक प्रतिक्रियाएँ थीं। उनमें बहुत कुछ देखने और सोचने लायक है। अत्यन्त छोटे आकार के वे शिल्प ‘काव्यात्मक‘ भी हैं, और ‘पीड़ादायक‘ भी।
सुमहेन्द्र की पहचान एक मूर्तिकार के तौर पर कम और चित्रकार के रूप में अधिक है, पर संभवतः 1978 में आयोजित अपनी धातु-मूर्तियों के पहले एकल प्रदर्शन मंे, उन्होंने ज्यामितिक आकारों की कुछेक छोटी अमूर्त कृतियाँ बनाई थीं- स्क्रैप की कटाई, झलाई और उसमें कतिपय वृत्ताकार या त्रिभुज आदि जैसे आकारों के संयोजन से। सुमहेन्द्र का बनाया हुआ टैगोर का एक ‘बड़ा‘ मूर्तिशिल्प जयपुर के रवीन्द्र मंच के सामने देखा जा सकता है।
सुमहेन्द्र ने मूर्तिकला के क्षेत्र में भले ही अधिक लगाव और गंभीरता से काम न किया हो, उनका योगदान ‘कलावृत्त‘ नामक संस्था के माध्यम से प्रतिवर्ष मूर्तिकारों के लिए रचना-शिविर आयोजित करने में अवश्य महत्वपूर्ण है। 1982 से कई वर्ष तक ग्रीष्मावकाश में वह अपने द्वारा गठित संस्था ‘कलावृत्त‘ के मंच पर स्थानीय और राज्य से बाहर के युवा मूर्तिशिल्पियों को आमंत्रित कर जयपुर में रह कर काम करने के लिए प्रेरित रहे।
इसके विपरीत यह भी एक अप्रीतिकर तथ्य है कि राजस्थान ललित कला अकादमी ने अपनी स्थापना के बाद 41 वर्षों के दौरान एक भी बड़ा मूर्तिकार-शिविर आयोजित नहीं किया, पर ‘कलावृत्त‘ के मूर्ति-शिविरों में अब तक जो युवा मूर्तिकार जयपुर में आ कर रचनाएं कर चुके हैं, उनमें ब्रजमोहन शर्मा (जम्मू) अंकित पटेल (बड़ौदा) दशरथ सुथार (अहमदाबाद) रमाशंकर (बनारस) खुशवास सेहरावत (दिल्ली) किशनलाल कुम्हार (मौलेला) विश्वंभर मेहता (जम्मू) राजेन्द्र टिक्कू (जम्मू) अजीत सिंह (लखनऊ) आर. श्रीनिवास (मद्रास) अंजन कुमार साहा (भुनेश्वर) और रमेश श्रीवास्तव (लखनऊ) जैसे अनेक मूर्तिशिल्पी शामिल हैं।
यह बड़े गौरव की बात है कि अपनी जन्मभूमि गुजरात छोड़ कर विश्वविख्यात भारतीय मूर्तिकार हिम्मत शाह कुछ सालों से अब जयपुर में रह कर कर्मरत हैं। हिम्मत शाह जैसे कलाकारों पर विस्तार से अन्यत्र पठनीय सामग्री उपलब्ध है, इसलिए स्थानाभाव के कारण उन के काम पर चर्चा आगे फिर सही !
यों 1937 में जन्मे रमेश पटेरिया की कला पर संभवतः बहुत सार्थक भी लिखा जा चुका है, इसलिए हम फिर से उनके मूर्तिशिल्पों पर कुछ कहें, तो यह लगभग पुनरावृत्ति ही होगी, किन्तु यह सूचना प्रासंगिक है कि न जाने क्यों पटेरिया जैसे राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त रचनाकारों को अपने निधन तक राज्य में कोई एकल प्रदर्शन करने या यहाँ की किसी समूह प्रदर्शनी में अपनी रचना भेजने की प्रेरणा नहीं मिली। पर उन्होंने शिल्पों की रचना के लिए राजस्थान के मकराना का संगमरमर ही चुना। वहीं वह बरसों रहे भी। संगमरमर की सृजनात्मक अन्वितियों की खोज पटेरिया के अनेकनेक मूर्तिशिल्पों में है। हममें से प्रायः सभी उनके काम के बारे में जानते हैं।
अपनी संस्थापना के तत्काल बाद जवाहर कला केन्द्र, जयपुर ने इसी दिशा में कुछ सार्थक पहल करते हुए कुछ बेहतरीन राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय रचनाशील मूर्तिकला-शिविर लगाए। राज्य में सन् 1965 से 1985 के दो दशकों में मूर्तिकला के क्षेत्र में पर्याप्त गति और नवीनता से काम किया गया है। यह प्रक्रिया इधर थोड़ी थमी है, पर जारी है।
राजस्थान ललित कला अकादमी की प्रायः हर प्रदर्शनी में मूर्तिकला के नमूने भी रखे जाते हैं!पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, उदयपुरने भी यथाशक्ति आधुनिक मूर्तिकला के सृजन और प्रदर्शन में योगदान दिया है। राजस्थान की कुछ प्रमुख कला संस्थाओं ने भी अपने सदस्य-मूर्तिकारों का काम यहां वहाँ प्रदर्शित किया है।
वनस्थली-विद्यापीठ,(वनस्थली) राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स, (जयपुर), ’फेस’, ’तूलिका कलाकार परिषद्’, ’टखमण-28’ (उदयपुर), ’कलावृत्त’ (जयपुर), ’धोरा’ (जोधपुर), ’रंगबोध’, (कोटा), ’मयूर-6’ (वनस्थली), ’आज’, ’कैनवास’ ’आकार’ (अजमेर), ’आदर्श-लोक’ (बीकानेर) जैसी संस्थाएँ राजस्थान में सक्रिय रही हैं।
इनमें ’टखमण-28’ (1968), ’तूलिका कलाकार परिषद्’ (1958), ’प्रौग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप’ (1970), ’मयूर-6 (1980), ’आकार’ (अजमेर) प्रमुखतम हैं, जिन्होंने अपने सदस्य कलाकर्मियों के माध्यम से समसामयिक कला-चेतना को विकसित करने में उपयोगी भूमिका अदा की है। इन कला-इकाइयों की वार्षिकी प्रदर्शनियों और कलाकार-शिविरों के आयोजनों ने राजस्थान में नए मूर्तिशिल्प परिवेश को भी कुछ हद तक सक्रिय बनाया है।
परम्परागत शिल्पियों के घर जन्मे, राजेन्द्र आर.मिश्रा के मूर्तिशिल्पों में नए भाव-बोध के साक्षात्कार का उपक्रम है। वह संगमरमर ही में अधिकतर काम करते हैं। इसी प्रकार उनके निकट-संबंधी जवाहर मिश्रा और रवि मिश्रा भी सक्रिय, जिज्ञासु और अध्यवसायी मूर्तिशिल्पी हैं। मुकुट बिहारी नाठा ने संगमरमर के गोलाकार शिल्पों के माध्यम से अपनी भंगिमा बनाई है।
हाँ, राजेन्द्र मिश्रा की आधुनिक मंतव्यों की ओर दिलचस्पी इसलिए भी प्रशंसनीय कही जानी चाहिए क्योंकि उनका सारा पैतृक संस्कार पूर्णतः परम्परागत है। उनके पिता रामरतन मिश्र तथा पितामह गोपीचन्द्र मिश्रा आजीवन ‘परम्परागत‘ मूर्तिकार ही बने रहे। पर राजेन्द्र आर. मिश्रा ने व्यावसायिक काम करते रहने के अलावा सफेद और काले संगमरमर पर कुछ अप्रचलित रूपाकार भी उकेरे । यहां मूर्ति की बहुआयामी रूपवादिता और घनत्व के प्रति जागरूकता दृष्टव्य है। पत्थर को घिसने, काटने, छीलने और उस पर आवश्यकतानुसार धारियाँ या लकीरें डालने में भी वह कुशल हैं। राजेन्द्र के ऊर्द्धवाकार मूर्तिशिल्प अधिक सृजनात्मक हैं।
जबकि अर्जुनलाल प्रजापति अपने ‘खोखले आकारों‘ के बहाने संभवतः हमारे अधूरेपन और अस्तित्व की भंगुरता की तरफ संकेत करते हैं। उनकी छवि संगमरमर जैसे माध्यम में व्यक्तियों के पोर्ट्रेट बनाने वाले एक कुशल शिल्पी की है। यथार्थवादी मूर्तिकला की दिशा में अर्जुन लाल प्रजापति का नाम और काम जाना माना है. संगमरमर में उन्होंने राजपूत सुंदरी को उसके वस्त्रों की सलवटों सहित जिस व्यावसायिक खूबसूरती से दर्शाया है वह बात उनके बहुत लंबे और अच्छे कला-अभ्यास का द्योतक है। आज भी कई कला-शिविरों में अर्जुनलाल को मिट्टी (टैराकोटा) में व्यक्तियों के पोर्ट्रेट बनाते देखा जाता है।
अब्बास बाटलीवाला (उदयपुर) के शिल्प, ऐंठी हुई गतिमान आकृतियों तथा नरेश भारद्वाज की कृतियां रहस्यात्मक और ऐंद्रिक गोपनीयता का आवरण लपेटे जान पड़ती हैं।
विनोद कुमार मानव रूपाकारों के परिवर्तित रूप-संकेत उत्पन्न करना चाहते हैं, तो हर्ष छाजेड़ प्रचलित से अलग धातु-माध्यम में ज्यामितिक आकृतियों का संयोजन ! धातु के सिक्कों का उपयोग भी उन्होंने ज्यामितिक त्रिआयामी संरचनाओं और क्यूब जैसे आकारों के निर्माण में कौशलपूर्वक किया है।
रूपचन्द्र शर्मा, जो धातु में ही काम करते रहे हैं, अपनी अमूर्त वस्तुगत चेतना को आकार देने के लिए एक आशाजनक संधान से जुड़े हैं।
मुकुटबिहारी नाठा, रूपचन्द्र शर्मा, ज्ञान सिंह और पंकज गहलोत जैसे लोगों के शिल्पांकन, कथानक के अमूर्तीकरण, उसकी प्रस्तुति और शिल्पगत संरचनाओं के लिए प्रचलित या पूर्व-परिचित मुद्राओं की बाट नहीं जोहते। विगत कुछ वर्षों के दौरान हमारे बहुत से युवतर मूर्तिकारों की रचनाएं राष्ट्रीय कला प्रदर्शनियों में चयनित और पुरस्कृत हुई हैं।
आठवां दशक और आधुनिक मूर्तिकला
1980 तक आते आते हमें बड़ी संख्या में युवा और युवतर मूर्तिकार रचनारत दिखलाई पड़ते हैं।
संजीव शर्मा, मंज़ूर अली चौधरी, राजेन्द्र कुमार शर्मा ‘गौतम‘, मेहर अली अब्बासी, देवेन्द्र कुमार शर्मा, पुरुषोत्तम शर्मा, अनूप कुमार शर्मा, विनोद कुमार, अरविन्द कुमार मिश्र, के. अशोक, चन्द्रशेखर, गणेश जोशी, त्रिलोक श्रीमाली, गगनबिहारी दाधीच, छगनलाल शर्मा, वीरेन्द्र शर्मा, श्रीनिवास अय्यर, चन्द्रप्रकाश चौधरी, नसीम अहमद अब्बासी, दीपक कुमार, विष्णु प्रकाश शर्मा , सैयद मेहर अली, अब्दुल गफूर भाटी, रमेश गर्ग, ज्योतिप्रकाश शर्मा, रूपचन्द्र शर्मा , अब्बास अली बाटलीवाला, विनोद कुमार, त्रिलोक श्रीमाली, रवि मिश्रा, अरविन्द मिश्रा, लल्लन सिंह, मुकुल मिश्रा, गोपाल लाल, देवेन्द्र आर. मिश्रा, सुरेश शर्मा , आदि के नाम यहाँ प्रासंगिक हैं, भले ही इनमें से आज कुछ ‘नियमित‘ काम करने के अभ्यासी न हों- नए भाव-बोध के मूर्तिकार ज्ञानसिंह, पंकज गहलोत, हर्ष छाजेड, गगनबिहारी दाधीच, और भूपेश कावड़िया ने सृजनात्मक और संभावनाशाली काम किया है। इनमें ज्यादातर मूर्तिकार नए तेवर के शिल्प ही रचते हैं।
ज्ञान सिंह आठवें दशक के बहुचर्चित मूर्तिकार हैं। संगमरमर में पिघलते रूपों के अंकन में उनकी छेनी हथौड़ी अप्रतिम है। वह जैसे पत्थर को मोम जैसा तरल बना देने के लिए अनेकानेक रोचक रूपाकार गढते हैं।
साधनों की कमी, उचित प्रोत्साहन और बिक्री के अभाव, मनोवैज्ञानिक रूप से (चित्रांकन की तुलना में) मूर्तिशिल्प गढ़ने के प्रति एक संकोच तथा पारंपरिकता के अत्यधिक गहरे प्रभावों आदि कारणों से मूर्तिकला के क्षेत्र में गंभीरतापूर्वक प्रयास करने वालों की संख्या आज भी उंगलियों पर गिनी जा सकती है।
यह देखना क्षोभकारी है कि राजकीय-संस्थाओं, नगर नियोजकों और शासन ने अब तक आधुनिक मूतिशिल्पों को सार्वजनिक स्थलों पर लगवाने में कोई पहल नहीं की है।
कला-क्षितिज पर युवा मूर्तिकार
अस्तु, 1980 के बाद कला-क्षितिज पर जो युवा मूर्तिकार दिखलाई देते हैं, उनमें से तीन-चार शिल्पियों पर हम यहाँ अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना चाहेंगे। राजस्थान में मूर्तिकला को नवीन संदर्भों से सम्प्रक्त करने वालों में युवा कलाकारों का योगदान स्मरण रखने योग्य है। गगनबिहारी दाधीच,रूपचन्द शर्मा,अब्बास बाटलीवाला, भूपेश कावड़िया, अर्जुनलाल प्रजापति, ज्ञानसिंह, राजेन्द्र मिश्रा, हर्ष छाजेड़, पंकज गहलोत, अंकित पटेल, अशोक गौड़ और विनोद सिंह कुछ ऐसे ही मूर्तिकार है।
लकड़ी में जीवन
अंकित पटेल (1957) के मूर्तिशिल्प इस मायने में दूसरी मूर्तिकृतियों से भिन्न हैं कि उनमें जहां माध्यम के प्रति आत्मीयता प्रखर और प्रगल्भ है, वहीं उसे अपनी समस्त सीमाओं और संभावनाओं के साथ कला- मंतव्यों के हित में रूपायित कर डालने का आग्रह भी। वह पिछले कुछ सालों से सिर्फ शीशम की लकड़ी को लेकर ही काम करते आ रहे थे। एक ही माध्यम तक अपनी ऊर्जा और खोज को केन्द्रित रखते हुए वह जैसे शीशम की प्रकृति को अंतरंगता से पहचानने और उसकी अधिकतम रचनात्मक संभावनाओं को ढूंढ निकालना चाहते थे।
शीशम के उपयोग को लेकर अंकित का कहना था-’’मैं सख्त से सख्त लकड़ी चुनता हूँ-खास तौर पर जड़। विशेष रूप से शीशम की जड़। इसका कारण यह है कि जड़ कभी फटती नहीं। लकड़ी के अनेक रेशों से गुंफित जड़ में एक ऐसा प्राकृतिक मुड़ाव होता है, जो आकृति को सजीव बनाता है।’’
काठ के आन्तरिक सौन्दर्य को कला-रूपाकारों में बदलने की प्रक्रिया अंकित पटेल के शिल्पों में संलग्नता से मौजूद रहती है। यह प्रक्रिया रोचक भी है और ’रोमांचक’ भी। अंकित अपने बहुत से समसामयिक मूर्तिषिल्पियों ही की तरह ’जीवन-रूपों’ के अनुरागी हैं। पिछले कुछ अर्से से वह हमारे समक्ष केवल मानव आकृतियाँ और पशुओं के रूपाकार लाते रहे हैं, तो यह बात जीवन-रूपों के प्रति उनके नैसर्गिंक लगाव और उन्हीं आकारों के भीतर अपने कला-आश्रय खोज निकालने की जिज्ञासा का द्योतक है।
प्रकारान्तर से उनकी कला इस बात को भी पुष्ट करती है कि अकेली मानवाकृतियों और उनकी विभिन्न मुद्राओं में ही, देर तक और दूर तक रचना की प्रेरणा बने रहने के स्रोत अन्तनिर्हित हैं। यह भी देखना दिलचस्प है कि हमारे अधिकांश मूर्तिशिल्पी, जीवन के विविध पक्षों और उपादानों की अभिव्यक्ति में ही, चाहे वे पक्षी हों, नारी-आकृतियाँ या मनुष्य के चेहरे, अपनी रचना-संवेदना के उत्स तलाश करना चाहते रहे हैं। यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं।
यों राजस्थान में, अमूर्त रूपाकारों को लेकर रचना कर रहे दूसरे युवा मूर्तिकार भी हैं, पर अधिकतर मूर्तिषिल्पी जीवन और मानव-मुद्राओं के प्रति ही जैसे एक स्थाई अनुराग से जुड़े हैं। आज मनुष्य ही मूर्तिकला के केन्द्र में है। माँ और बच्चा, युगल, जीव आकृतियां और नारी-आकार अब तक उनके प्रिय विषय रहे हैं।
अंकित पटेल की काष्ठ-कृतियों में हम सिर्फ आकार ही नहीं पहचानते, उनके अनुभवों से भी सम्बद्ध होना सीखते हैं। अपने देखे जाने की प्रक्रिया के दौरान ही उन षिल्पों की त्वचा, तंतु और प्राकृतिक रंग, हमें अपने ’होने’ की प्रक्रिया में शरीक करना प्रारम्भ कर देते हैं। यह भी देखने योग्य बात है कि जहां उषा हूजा जैसी मूर्तिकार धातु के प्रकट तौर पर अनुपयोगी टुकड़ों की झलाई करते हुए ’अनगढ़’ सौन्दर्य की पक्षधर बनी रहती हैं, वहाँ दूसरी तरफ अंकित जैसे मूर्तिकार एक पूर्व निर्दिष्ट जरूरत के अनुसार काठ को उकेरते, छीलते, चिकनाते या गहराते हैं।
वह काष्ठ पर ’विषय की माँग’ के अनुसार टैक्सचर भी गोदते हैं। टैक्सचर इनकी कृतियों में बहुत महत्वपूर्ण चीज है। या तो यहाँ पर वह प्राकृतिक रूप से कला-कृतियों में सुरक्षित रखा गया है या जरूरत के लिए खोदा गया है। यहाँ माध्यम के प्रकृतिजन्य तंतु-धरातल का अपने कथानक के हित में बुद्धिमतापूर्ण इस्तेमाल भी है। ’अश्वमुख ’ (16 फीट, 1985) उनकी इसी तरह की एक रचना है।
अगर अंकित पटेल के शुरुआत के काम की चर्चा करें तो हम लकड़ी पर धातु के आंषिक उपयोग से ध्यानपूर्वक चयनित और मेहनत से संयोजित काष्ट पट्टिकाओं के गोलाकार शिल्पों तक पहुंच सकते हैं। ’युगल’ अंकित पटेल का इसी तरह का एक प्रतिनिधि मूर्तिशिल्प है। इस श्रृंखला में उन्होंने चीड़, सागवान, रोहिड़ा, शीषम जैसी भिन्न-भिन्न किस्मों के काष्ठ को छील कर, काट कर और फिर एक दूसरे से जोड़ते हुए कुछ अंडाकार शिल्प बनाए थे। बड़ौदा में प्रो. महेन्द्र पंड्या जैसे शिल्पियों से दीक्षित, अंकित के विद्यार्थी जीवन में तैयार इन शिल्पों में जहाँ आकारों को विरूपित करते हुए एक युवतर अनुसन्धानी मूर्तिकार का परिचय मिलता है, वहीं आकारों के माध्यम से मानव सम्वेदनाओं को खंगालने वाले परिश्रमी विद्यार्थी की खोजबीन भी जाहिर होती है।
उनकी इधर की रचनाओं की एक उल्लेखनीय खासियत है उनकी लयात्मकता। ऐसे मूर्तिशिल्प हमें अक्सर किसी प्रवाह, विस्तार, लय और उसकी आन्तरिक तन्मयता से जोड़ते हैं। लकड़ी का एक अनगढ़ टुकड़ा, क्या आकर ले सकता है-यह बात उनकी अनुसन्धानी नजर जानती है और वह (यथासंभव उपलब्ध नैसर्गिक आकार के भीतर ही) अपने कथ्य के अनुकूल आकृति में रूपायित करने की कोशिश में लग जाते हैं।
प्रख्यात मूर्तिकार स्व. रामकिंकर बैज (1910-80) ने कहीं चित्र और मूर्ति के बीच कलानुभव की भिन्नता को ले कर एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही थी। एक बार यह पूछे जाने पर कि ’’चित्र-रचना की बजाए उन्हें मूर्तिशिल्प बनाने में क्या संतोष मिलता है’’, रामकिंकर बैज की टिप्पणी थी- ’’...हाँ, मूर्ति बनाना ज्यादा अच्छा लगता है। वह गोलाकार है। प्रकाश रहता है......प्रदक्षिणा.....प्रदक्षिणा....चारों ओर से। चित्र देख कर मन होता है कि पीछे क्या है? इसलिए मूर्ति... एक ओर से चारों ओर को देखना....चित्र एक ओर से.......मूर्ति चारों तरफ। रात में माँ अपने बच्चे को देख नहीं पाती, पर अंधेरे में छू कर जान सकती है। इसी कारण....’’
स्व. रामकिंकर बैज की यह बात किसी भी परिभाषा से बड़ी है। मूर्ति की रचना इसी त्रिआयामी कला जरूरत का शायद सबसे जीवंत और सर्वाधिक नजदीकी प्रमाण है। अंकित पटेल के नवीनतम शिल्पों में, अब एक निर्वात और गूंज भी है, जो शिल्प को गहराई देती है और आकृति की एकात्मकता और एकरसता को ’बदलती’ है। यहाँ रचना को अलग-अलग कोणों से देखे जाने का आग्रह बरकरार है।
अंकित ’बुनियाद की मजबूती के हित में पारम्परिक और यथार्थवादी शिल्प -दीक्षा को कला के लिए ’उपयोगी मानते हैं। वह यह भी मानते है कि यथार्थ से और आगे जाने के लिए कलाकार का कौशल और उसकी कल्पना भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।
जयपुर में अनेक वर्षों से रहते हुए वह विपुलता से और लगातार काम कर रहे हैं। उनका मानना है कि ’’ कलाकार को ज्यादा से ज्यादा कलाकृतियाँ बनानी चाहिएं ताकि अधिसंख्य लोग उन्हें देख कर आधुनिक कला-सम्वेदना के प्रति संस्कारवान बन सकें। कला-सृजन के लिए मेरी सारी प्रेरणा ’समाज’ है-इसलिए जो कुछ मैंने संस्कार के रूप में अपने समाज से ग्रहण किया है, वह कला के तौर पर इसी समाज तक वापस पहुँचना भी तो चाहिए!’’
विगत कुछ बरसों से अंकित अपेक्षाकृत बड़े आकार के आम तौर पर आदमकद या उससे भी बड़े ताम्रशिल्पों की रचना में लगे हैं। शिल्प-प्रकृति को ले कर वह पर्याप्त प्रयोगधर्मी हैं। उन्होंने महान आधुनिक मूर्तिकार ऐलेग्जेंडर केल्डर से प्रेरित होकर लकड़ी के घूमते हुए कुछ ’मोबाइल’ शिल्प भी बनाए हैं।
हाल ही उनकी कृतियों में एक और नई चीज देखने को मिली थी- रोशनी का प्रयोग। अंकित पटेल ने इस उद्देश्य से कि ’शिल्प, अंधकार में भी, खास तौर पर रात में भी, दिखलाई देने चाहिएँ’’ अपनी रचनाओं में प्रकाश के लिए बिजली के रंगीन बल्बों का इस्तेमाल किया है।
आम तौर पर मूर्तिशिल्प केवल दिन की रोशनी में ही प्रेक्षक के लिए आकर्षण की चीज़ हुआ करते हैं। रोशनी के अभाव में अंधेरे में वे एक तरह निर्जीव और अप्रासंगिक हो जाते हैं। यदि उनके आस-पास रोशनी पर्याप्त न हो तो वे रात को काम नहीं करते।’’ अंकित यह चाहते हैं कि मूर्तिशिल्प रात को भी आकर्षण का केन्द्र बने रह सकें। इसलिए इस बार अपने नये काम में, शीशम की लकड़ी के भीतर गहराइयाँ उपजाते हुए वह रंगीन प्रकाश के लिए बल्बों का प्रयोग कर रहे हैं। यद्यपि ऐसा करने से शिल्प के भीतर उन्हें विद्युत उपकरणों को लगाने के लिए अतिरिक्त परिश्रम करना होता है, पर मूर्तियों को निरन्तर देखा जाता रह सके, इसके लिए यह प्रबन्ध एक प्रकार से एक उपयोगी अन्वेषण ही है। एक मौलिक अटकल। पिछले दस बारह वर्षों से वह अदल-बदल कर हमारे सामने मानवाकृतियाँ या पशुओं के रूपाकार लाते रहे हैं, तो यह बात जीवन के प्रति उनके प्राकृतिक रुझान और जिज्ञासा की द्योतक है। यदि अंकित पटेल के प्रारंभिक काम की चर्चा करें तो हम लकड़ी और धातु के आंशिक उपयोग से मेहनतपूर्वक चयनित और संयोजित काष्ठ-पट्टिकाओं के गोलाकार शिल्पों तक पहुँच सकते हैं। अंकित पटेल शीशम की लकड़ी (रोज़वुड) के रंगों को बचाए रखते हुए ’स्त्री’ के रूपाकार भी बनाते रहे हैं। वे लयात्मक भी हैं और विस्तृत भी। बडे़ आकार को ले कर अंकित पर्याप्त प्रयोगधर्मी हैं। उन्होंने लकड़ी और ताम्बे में घूमते हुए कुछ एक और नए ’मोबाइल’ शिल्प भी बनाए हैं और उनमें रात को एक विशेष प्रभाव डाल सकने के उद्देश्य से, रंगीन बल्बों का भी इस्तेमाल किया है। अंकित पटेल तो कहते ही रहे हैं ’’मूर्तिशिल्प रात को भी काम करने चाहिएं।’’
मूर्तिशिल्पों की बिक्री, चित्रों की तुलना में अपेक्षाकृत कठिन है। समकालीन भारतीय कला-बाजार अभी मूर्तिकारों के लिए उतना उत्साहप्रद नहीं । बड़े आकार के मूर्तिशिल्पों को एकल प्रदर्शनों के लिए एक जगह से दूसरी जगह ले जाना भी चित्रों की तुलना में अधिक मंहगा और कठिन है। पर यह सब होते हुए भी अंकित पटेल निराशावादी नहीं हैं। इन सब चुनौतियों के उपस्थित रहते वह मूर्तिशिल्प बनाना ‘कम‘ नहीं कर सकते। हर बार हम उन्हें अपनी किसी न किसी रचना पर मेहनत करते हुए देख सकते हैं और उनका लगातार इस दिशा में लम्बा सफर, बहुत सा काम, शिल्प-प्रेमियों के लिए एक आश्वस्ति जगाने वाली बात है।
विनोद सिंह (1956) जो अब बनारस में हैं, भी आरम्भ में राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स में मूर्तिकला के प्रवक्ता थे। भैंसलाना के काले संगमरमर में अपनी शुरूआत करते हुए उन्होंने कुछ प्रांजल-शिल्प बनाए थे।
मनुष्य का ’सिर‘ आधुनिक मूर्तिकारों के निकट रचना की सजीव प्रेरणा रहा है। विनोद सिंह भी मनुष्य के मस्तक और धड़ को कुछ भिन्न अनुभव-कोणों से देखना चाहते हैं। यह ’देखना’ महज आकृति की अभिव्यक्ति नहीं, अपितु इसके पीछे अन्तर्निहित भंगिमाओं का सम्प्रेषण भी है। अपनी शृंखला ’सिर’ में वह प्रेक्षक को एक जड़, कसावपूर्ण, तनावग्रस्त यांत्रिकता के ताकाजों से जोड़ते है। प्रतीकात्मक रूप से ये सारे सिर किसी सत्ता या ’आथॉरिटी’ का संकेत हैं, तो तुरन्त ही हम उसकी हृदयहीनता और प्रोटोटाइप में ढल जाने की आसन्न खतरे को भी सूंघ सकते हैं। यूनानी-सैनिकों की भांति शिरस्त्राण धारण किए इन निर्जीव सिरों में, असाधारण वैज्ञानिक उन्नति से उत्पन्न यांत्रिकता और संज्ञाहीनता की ओर इशारे हैं। ये शिल्प, परास्त सेनानायकों की दुखान्तिकाओं पर मूर्तिकार की शोकंजलि भी हो सकते हैं और सत्ता की परास्त नियति के बारे में व्यंग्यात्मक भविष्यवाणी भी।
उनके शिल्पों में धातुओं-विशेष रूप से ऐल्यूमीनियम और पीतल का सीमित उपयोग है। धातु के ये टुकड़े पत्थर की काली-सलेटी काया पर चमकीली संवेदनाओं का केन्द्र भी हैं, और सम्पूर्ण शिल्प की अन्विति भी। काले संगमरमर के चुने हुए हिस्सों पर वह खुदाई करते हैं, इसलिए जहाँ ऐसे मूर्तिशिल्पों का अधिकांश हिस्सा स्निग्ध और चिकना है, वहीं कुछ भाग इस टँचाई की वजह से खुरदरा और असमान दिख पड़ता है। रूपाकार की सतह की एकरसता को भंग करना ही शायद इस खुदाई का लक्ष्य हो, पर आकृतियों में वह एक खास तरह की जड़ता, ठोसपन और संवेदनशून्यता तक दर्शक को पहुँचा देने की तजवीज में दिखलाई देते हैं।
भूपेश कावडिया सबसे सर्जनात्मक मूर्तिशिल्पियों में प्रमुख हैं। मनुष्य की आशाओं, हताशाओं, नियति के मूर्तिकार! वह जैसे चीज़ों नहीं, चीज़ों की आत्मा को ही खोजते और खोलते हैं. मूलतः पत्थर पर रचना करने वाले इस तेजस्वी रचनाकार के काम में महज़ संगमरमर तक ठहर जाने की सीमित मानसिकता नहीं- अपितु वह संगमरमर को धातु और लकड़ी से संयोजन से नए अनुभव देते हैं! यहाँ तक कि वह कई बार पत्थर पर सिल्कस्क्रीन के छापों से एकदम अलग स्वाद अपने कामों में उकेरते हैं! यहाँ आधुनिकता और समकालीन जीवन के अनेकानेक बिम्ब रचे गए हैं....सतह को स्निघ्ध और कहीं खुरदरा बनाते हुए रूपाकार की एकरसता को बड़े ही कवितामय ढंग से तोडा गया है! चेहरों की भिन्न भिन्न मुद्राओं को अंदरूनी कला आंख के विविध कोण कितनी गहरी सम्पृक्ति से दर्शा सकते हैं ये बात भूपेश के शिल्प ही दर्शा पाते हैं...उनके सारे काम में एक बेहतरीन सोच और समकालीनता है.
आधुनिक संवेदनाओं को अपनी कृतियों का केन्द्र बनाए हुए जितने मूर्तिकार विगत कुछ सालों से राजस्थान में रचनारत हैं, उनमें मूर्तिशिल्पी अशोक गौड़ (1965) का अपना मुहावरा बना है। संगमरमर में स्त्री-देह के विविध रूपों के अलावा कुछ अमूर्त रूपाकारों को ले कर, सुमन गौड़ के शिल्प प्रदर्शनियों में पुरस्कृत हो चुके हैं। अशोक एक तरफ जहाँ शिल्प का मंतव्य, प्रकृति की प्रेरणाओं को रूपायित करना मानते हैं, वहीं यह भी कि मूर्तिशिल्प ’’घरेलू जीवन में जो नहीं है, उस निर्वात को भी भरते हैं।’’ उनके नजदीक रचना की सबसे जीवन्त प्रेरणा है-प्रकृति, जो अपने हर स्वरूप में हमें जैसे बार-बार पुनर्जीवित करती है-सुखद स्फूर्ति से सरोबार करती हुई।
कोई तीसेक साल पहले परम्परागत मूर्तिशिल्पियों के परिवार से संबंधित अशोक गौड़ ने अगर फूलों और वनस्पति को किसी न किसी रूप में मूर्त करना शुरू किया था, तो यही बात उनके ’बुनियादी’ कला-सरोकारों की अच्छी और विश्वसनीय परिचायक है। अब तक यों उन्होंने मिट्टी, लकड़ी और धातु से भी शिल्प तैयार किए हैं, पर शायद संगमरमर ही उनकी सबसे प्रिय प्राथमिकता है। अशोक गौड़ ने नफीस कारीगरी से संपन्न मूर्तिशिल्पों को देखने के दौरान हम एक ऐसी दुनिया में प्रवेश करते है, जो स्वप्निल-सौन्दर्य, प्रकृति की कमनीयता और उसके विभिन्न सजीव स्वरूपों की मार्मिक उपस्थिति से मिल कर बनी है।
यहाँ देखे जाने के लिए बहुत कुछ है, और लगभग उतना ही महसूस किए जाने के लिए भी, क्योंकि ये सारे शिल्प हमारे भीतर एक अलग चाक्षुष-स्वाद जगाते हैं, साथ ही जिज्ञासाएँ और बहुत सारी स्मृतियां! यहां अपनी विषयवस्तु और संगमरमर में प्रकट उसकी ‘आत्मा‘ के प्रति भी अशोक गौड़ आग्रहशील बने रहना चाहते हैं, क्योंकि वह मानते हैं कि ‘‘माध्यम के साथ कथानक की संप्रक्ति बहुत सघन और सटीक होनी चाहिए।’’
इस शिल्पी के निकट ’’मूर्ति की रचना निश्छल आनन्द की अनुभूति जगाने का एक बेहतरीन स्रोत है।’’ शायद इसलिए यह भी आकस्मिक नहीं कि हमारे लिए उनकी आकृतियों में एक सुकोमल और अंतरंग रूमानियत निरन्तर उपलब्ध रहती है। पर इस चीज की लगातार मौजूदगी भी एकान्तिक, एकरस, उबाऊ अथवा बोझिल नहीं। अशोक गौड़ के शिल्प, फूलों की तरह सुकुमार और पत्तियों की भांति अनेकार्थी हैं। आकारों के बहुरूपा और आकृतियों के बहुसंख्यक होने की चुनौती को लेकर वह विचलित नहीं होते। वे विस्तार और आकारों के लिए अनजाने दरवाजे खोलते हैं। इस बात का प्रमाण संगमरमर, फाइबर-ग्लास और धातु जैसे अलग-अलग माध्यमों में तैयार अशोक के वे मूर्तिशिल्प हैं, जहाँ बहुत से स्याह रंगीन अधरखुले फूल आकाश के अनन्त की तरफ जैसे सिर उठाए खडे़ हैं। धातु के चयनित, किन्तु जरूरी इस्तेमाल से जहाँ उनकी दर्शनीयता बढ़ी है, वहीं इनकी शिल्पकृतियाँ हमारे भीतर बाहर कि सौन्दर्यबोध में कुछ सार्थक और क्रियाशील जोड़ती हैं।
राजस्थान में कला-आलोचना : दशा और दिशा
समकालीन कलाकारों के काम की चर्चा करते हुए यहाँ प्रसंगवश कला-आलोचना की स्थिति के बारे में टिप्पणी करना भी शायद उपयुक्त हो। यह सही है कि राजस्थान में मूर्तिशिल्पियो और् चित्रकारों की संख्या तो अच्छी-खासी है, पर कला-समालोचना के क्षेत्र में उतना उत्साहवर्धक काम नहीं हुआ ।
प्रो. आर. वी. साखलकर ने यहाँ प्रारम्भ में आधुनिक चित्रकला पर आलोचनात्मक लेखन की पहल की थी । वह स्वयं एक अच्छे चित्रकार रहे हैं और उनका योगदान राज्य में आधुनिक कला-आलोचना का विकास करने के संदर्भ में विषेष महत्व का है । प्रारम्भ में हम कह चुके हैं कि प्रो. साखलकर की पुस्तक ‘आधुनिक चित्रकला का इतिहास‘ (राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी से प्रकाषित) बहुत उपयोगी प्रकाशनों में से एक है । इसमें उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कला में घटित हुए प्रमुख आंदोलनों और धाराओं के अलावा ऐसे प्रायः सभी चित्रकारों की चर्चा की है, जिनका समकालीन विश्व चित्रकला की शक्ल बदलने में ऐतिहासिक योगदान रहा है। यहाँ यह भी देखना दिलचस्प होगा कि कुछ चित्रकार कला-समीक्षा की स्थिति से ‘असंतुष्ट‘ हो कर इस क्षेत्र में उतरे। ऐसे लोगों में प्रकाश परिमल, प्रेमचन्द्र गोस्वामी, अशोक आत्रेय और हेमन्त शेष के नाम शामिल किए जाने लायक है।
यों, यह सर्वविदित ही है कि अखिल भारतीय स्तर पर भी कला-समालोचना, खास तौर पर हिन्दी में कला पर लेखन, अपेक्षाकृत देर से शुरू हुआ, पर ‘धर्मयुग, ‘दिनमान‘, ‘ललित-कला-कन्टैम्प्रेरी‘, ‘समकालीन कला‘, ‘कला-वार्ता‘, ‘मार्ग‘, ‘वृश्चिक‘, ‘कला-प्रयोजन‘, ‘कला-दीर्घा‘ और ‘क‘ जैसी पत्र पत्रिकाओं की उपस्थिति से कला पर राजस्थान में आलोचनात्मक लेखन की प्रक्रिया को बल मिला । राजस्थान ललित कला अकादमी की पत्रिका ‘आकृति‘ विगत 30-35 वर्षों से भी ज्यादा समय से प्रकाशित होती रही, हालाँकि सम्पादन, विषयवस्तु और आकार-प्रकार में इसमें समय-समय पर बदलाव आता रहा, पर इसके कुछ विशेषांक उपयोगी हैं । बाद में यह पत्रिका ‘ कला-समाचार-बुलेटिन‘ के रूप में प्रकाशित की जाती थी, अब बन्द है।
दूसरी सच्चाई यह भी है कि आज भी राज्य में ‘कला-प्रयोजन‘ (त्रैमासिक) के अलावा, जो प्रसिद्ध् कला समीक्षक हेमन्त शेष द्वारा सम्पादित पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, उदयपुर की द्विभाषी त्रैमासिक कला-संस्कृति पत्रिका है, साहित्य व ललित कलाओं पर केन्द्रित कोई पत्र या पत्रिका है ही नहीं। ‘कला-प्रयोजन‘ अपने १७वें प्रकाशन-वर्ष में है।
यहाँ कला से सम्बन्धित पुस्तक-प्रकाशनों की हाल भी चिन्ताजनक है । किन्तु ऐसे निस्पन्द प्रकाशन-परिवेश में जिस सम्पादक की ऐतिहासिक भूमिका कही जा सकती है, वह थे -स्व. श्रीगोपाल पुरोहित। ललित कलाओं और संस्कृति के अन्यान्य पक्षों से गहरी सम्प्रक्ति रखने वाले श्रीगोपाल पुरोहित, एक समय में जैसे सारे राजस्थान की कलाओं और सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रचारक और पोषक थे । राज्य के प्रसिद्ध पत्र ‘राजस्थान पत्रिका‘ (दैनिक) और बाद में ‘इतवारी पत्रिका‘ (साप्ताहिक) में प्रकाशित होने वाली संस्कृति-सम्बन्धी-सामग्री के नियमित प्रकाशन का श्रेय स्व. श्रीगोपाल पुरोहित को ही है, जिन्होंने सबसे पहले 1974 में हिन्दी के जाने-माने कला-मर्मज्ञ और लेखक हेमन्त शेष से कला पर साप्ताहिक स्तम्भ-लेखन करवाया, जो बरसों तक जारी रहा । राजस्थान में पहली बार शुरू किए गए इस नियमित कला-स्तम्भ के माध्यम से यहाँ की चित्रकला सम्बन्धी गतिविधियों के प्रचार-प्रसार और कुछ हद तक ‘प्रोत्साहन‘ में मदद मिली।
राजस्थान से प्रकाशित होने वाली कला-सम्बन्धी सामग्री यदा-कदा ‘कलावृत्त‘ (सम्पादक: सुमहेन्द्र), ‘नवभारत टाइम्स‘ (दैनिक) और ‘नवज्योति-हैरल्ड‘ (अब बन्द) आदि पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती रही है। परम्परागत और आधुनिक चित्रांकन के विषय में स्व. जयसिंह नीरज, स्व. कुँवर संग्राम सिंह, रीता प्रताप, डा0 अन्नपूर्णा शुक्ला, ममता चतुर्वेदी आदि भी पुस्तकों में या पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं। वरिष्ठ आलोचक अशोक आत्रेय, स्व. रामकुमार, प्रेमचन्द गोस्वामी, आर.बी. गौतम, हर्षवर्धन, सुमहेन्द्र, और विद्यासागर उपाध्याय, आदि भी आधुनिक चित्रकला के विभिन्न पक्षों पर लिखने वालों में रहे हैं । परन्तु आधुनिक कला के विभिन्न शास्त्रीय-पक्षों पर गम्भीर सामग्री तैयार करने वाले में कवि-कला-आलोचक प्रकाश परिमल और इस समीक्षक का नाम उल्लेखनीय कला आलोचकों में सम्मान से याद किया जाता है ।
अभी भी राजस्थान में आधुनिक कला की बुनियाद, उसके विकास, चुनौतियों और नई सृजनात्मकता को ले कर की जाने वाली बहसों और खोजों के लिए हिन्दी में पर्याप्त अवकाश है। समकालीन भारतीय कला आलोचना में, दुर्भाग्य से राजस्थान के बहुतेरे अर्थ-सम्पन्न और सशक्त कलाकारों की बहुत उपेक्षा हुई है। इसलिए इस आलेख में हम जान-बूझकर अपनी बात राजस्थान के मूर्तिकारों तक ही सीमित रखना चाहते हैं। इसके पीछे यह आश्वस्ति जरूर है कि राजस्थान के बाहर के कलाकारों व समीक्षकों का ध्यान भी यहाँ के कला-परिदृश्य में हो रहे नए रचनात्मक बदलावों की तरफ जाएगा और हिन्दी के ऐसे पाठक, जो भारतीय कला-परिवेश के संदर्भ में, राजस्थान के क्रियाशील मूर्तिशिल्पियों के योगदान को व्यवस्थित रूप से समझना चाहते हैं, हमारी इस छोटी सी कोशिश से शायद कुछ सूत्र, थोड़ी बहुत सहायता प्राप्त कर सकेंगे।
समापन में यह कहना अतिरंजित नहीं कि राजस्थान में युवा मूर्तिशिल्पियों से बहुत सी आशाएँ हैं और सारी परिस्थितिजन्य बाधाओं के बावजूद, आधुनिक मूर्तिशिल्प का भविष्य उज्ज्वल।
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