बुधवार, 18 मार्च 2015
आशा बलवती है राजन!
‘आशा बलवती है राजन!’ : नन्द चतुर्वेदी का गद्य
हेमंत शेष
मूल्यवान समाजवादी-चिन्तक, हिन्दी के सम्मान्य प्रोफ़ेसर और हमारी भाषा के भीतर तक कवि नन्द चतुर्वेदी का गत दिसंबर में उदयपुर में हुआ निधन, हमारे साहित्यिक परिदृश्य से एक कवि के अलावा हिन्दी से एक बेहतरीन गद्यकार का चिर-प्रस्थान ही है| ज्यादातर हिन्दी-मित्रों, उदयपुर के बाशिंदों और पाठकों की नज़र में ‘नन्द बाबू’- जैसा लोग प्रायः प्यार से इस ९१ बरस के ‘नौजवान’ को कहते रहे- प्रमुखतः एक हिन्दी कवि थे- पर मेरी विनम्र राय में इन सालों में उनके जैसा सरस और सार्थक गद्य लिखने वाला दूसरा लेखक नहीं हुआ |
वह अपने द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘बिंदु’ आदि में तो बराबर गद्य लेखन करते ही रहे- ‘शब्द-संसार की यायावरी’, ‘यह हमारा समय’ और ‘अतीत-राग’ जैसी किताबों के रूप में भी उनके लिखे कुछेक गद्य-आलेख अब सुलभ हैं – इस बात के बावजूद कि उनकी निजी दिलचस्पी ज्यादा छपने-छपाने में कभी नहीं रही- पर नन्द जी का असल मन, आत्मीय गद्य, लेखों के अलावा उनकी उन सैंकड़ों चिट्ठियों में भी टटोला जा सकता है जो वक़्त-वक़्त पर अपने दोस्तों, कनिष्ठों, प्रशंसकों और साहित्यिक-मित्रों को लिखते रहे थे|
पत्र-लेखन का कोई मौका वह नहीं छोड़ते थे- खास तौर पर फोन-संचार के इस युग में भी- जब चिठ्ठी लिखना आज के प्रमादग्रस्त लोगों को एक भयंकर दूभर उपक्रम लगता है| नन्द जी पुरानी पीढ़ी के उन साहित्यकारों में से थे- जो टेलीफोन की बजाय पत्रों को आपसी-संवाद का अधिक मानवीय, मैत्रीपूर्ण और अन्तरंग जरिया मानते थे|
मेरे पास उनके लिखे कई पत्र हैं, जो कागजों के अम्बार में अभी किसी गहरी नींद में सो रहे हैं- जिन्हें अब प्रकाश में, बाहर आना होगा- पर जोधपुर में कोई दो साल पहले भारतीय साहित्य अकादमी, दिल्ली के एक आयोजन में नंद जी से एक बार और मिलना- उनसे बातें करना और उन्हें सुनना हमेशा की तरह सार्थक अनुभव था | उन्होंने वहां से लौट कर मुझे ‘राजकमल प्रकाशन’, नई दिल्ली से प्रकाशित लेखों की अपनी किताब अपने पुत्र सुयश चतुर्वेदी के हाथों भिजवाई थी| इससे पहले भी मैं (उनके हस्तलेख से ही) समय-समय पर उनके दूसरे संग्रह प्राप्त कर चुका था|
कहना न होगा कि इस पुस्तक में नन्द जी ने बहुत सारे समसामयिक सामाजिक राजनैतिक सरोकारों पर लिखने के अलावा अपनी एक और किताब- “ अतीत-राग” में अपने क़स्बे, परिवारजन और समकालीनों पर भी बड़े आत्मीय संस्मरणात्मक लेख लिखे हैं| ‘यह हमारा समय’ किताब में वह जिस प्रखरता से वर्ण-व्यवस्था, स्त्री-शक्ति, महिला-स्वातन्त्र्य, दलित-प्रश्नों, समाजवाद, शिक्षा, धर्म, हिंसा, बाजारवाद, हिन्दी, संचार-साधनों, पत्रकारिता, मीडिया, भारतीयता आदि गंभीर विषयों पर एक गहरी अंतर्दृष्टि से विचार कर सकते थे- वहीं वह खेदपूर्वक बातचीत या कभी पत्रों में, इस बात को भी रेखांकित करते थे कि इधर अपने समकालीन लेखकों पर ‘संस्मरणात्मक’ लेखन की परंपरा हिन्दी पत्रकारिता में प्रायः चुक सी गयी है|
“यह हमारा समय” (राजकमल प्रकाशन.२०१२) की अपनी भूमिका में नन्द जी ने लिखा था- “गद्य-लेखन के बारे में में यह कहना आवश्यक समझता हूँ कि यह ‘स्वतः-स्फूर्त’ सर्जना नहीं है, यह अपने बाहरी दबावों की निष्पत्ति है और एक सुतार्किक निष्कर्ष तक पहुँचती यात्रा है| लेकिन यह कहना उचित नहीं है कि गद्यलेखन ‘दोयम दर्जे’ की साधना है| अब कविता-भाषा का गद्य-रूप लेना भाषा की शक्ति का विस्तार और काव्य-भाषा के वर्चस्व की प्रचलित रूढ़ियों को अस्वीकार करना भी कहा जाएगा| (पृ. 9-10)
इस पुस्तक में “कई विषयों पर लिखे आलेख हैं जिनमें समय के दबावों, उनको समता और स्वतंत्रता के वृहत्तर उद्देश्यों में बदलने वाले आन्दोलनों की चर्चा है| ‘समता’ ही केन्द्रीय चिंता है जिसे अवरुद्ध करने के लिए विश्व की नई पूंजीवादी शक्तियां अपने सांस्कृतिक एजेंडा के साथ जुडी हुई हैं| दुनिया के लोग अघाए और शुचितों के बीच बाँट दिए गए हैं| लालची मध्यवर्ग अपनी समृद्धि के सपने देखता पूंजीपतियों की मायावी दुनिया का सहचर हो गया है|”
कहने का भाव यह है कि नन्द जी के गद्य में सर्वत्र जो खरापन, तार्किकता और विश्लेषण दीखता है वह उनकी गहरी समाजवादी अंतर्दृष्टि से आया है- उसमें किसी तरह की आंसू-धकेल भावुकता नहीं- तर्क और विवेक की रोशनी है| “इस संकलन में उन्हीं सब सन्दर्भों और परम्परों को खंगाला गया है जो समता के विचारों और पक्षों को मज़बूत करती हैं| ‘धर्म’ के उसी पक्ष को बार बार रेखांकित किया गया है जो धर्म के स्थूल, बाहरी कर्मकांड को महत्वहीन मानता है लेकिन जो संवेदना के उन सब चमकदार पक्षों को शक्ति देता है, जो सार्वजानिक जीवन को गरिमामय बनाते हैं|”
इन सब आलेखों में नंदजी के कवि-मन पर समकालीन प्रश्नों की गहरी काली छाया है- पर जिससे मुक्ति पाने का सपना भी इन गद्य-रचनाओं में झिलमिलाता है| खुरदरी वास्तविकताओं और जटिल-सामाजिक-राजनैतिक षड्यंत्रों की खोज-खबर लेते उनके कई गद्य-आलेख हमें किसी तरह भी हताशा का सन्देश नहीं देते, एक आशावादी, उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्ति जागते कर्मठ लेखक के मन-मानस का पता बताते लगते हैं|
नन्द जी ने इन पंक्तियों के लेखक द्वारा उदयपुर और जयपुर आयोजित कुछ राष्ट्रीय-वैचारिक समागमों में बड़ी उत्सुकता और उत्साह से शिरकत की थी| वह दो-दो, तीन-तीन दिन बराबर उनमें उपस्थित रहे और यथासमय मौखिक टिप्पणियाँ भी देते रहे| एक बेहतरीन वक्ता तो वह थे ही- कई अवसरों पर नंदजी ने इन गोष्ठियों में भी अपने वाक्-चातुर्य और बेहतरीन वाग्मिता से सुनने वालों को उत्फुल्ल किया | भाषाई-सौष्ठव, हाज़िर-जवाबी और यथावसर व्यंग्यात्मकता उनके भाषण और सामान्य-चर्चा तक में सहज तौर पर आते थे| वह अपनी बात बड़ी कुशलता और क्रमबद्ध, किन्तु रोचक ढंग से रखा करते थे| बोलते समय विषय के अलावा भाषा पर भी उनका अधिकार बड़ा मनमोहक था|
उन्होंने हमारी पत्रिका ‘कला-प्रयोजन’ को न केवल एक लंबा इंटरव्यू ही दिया था, बल्कि समय-समय पर इस पत्रिका को अपना रचनात्मक सहयोग भी| ‘भारतीयता की धारणा’ को केंद्र में रख कर जब पश्चिम-क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के माध्यम से एक राष्ट्रीय विचार-गोष्ठी आयोजित करने और बाद में उस समागम में पढ़े गए पर्चों को संकलित कर पत्रिका ‘कला-प्रयोजन’ का विशेषांक निकालने का विचार इन पंक्तियों के लेखक को आया तो नन्द बाबू ने हमारे आग्रह पर एक स्वतंत्र-आलेख लिखा- “भारतीयता की तलाश”| यह मूलतः उसी संगोष्ठी के लिए आकल्पित लेख था- जो बाद में उनके गद्य संकलन ‘यह हमारा समय’ में छपा है|
नन्द जी ने इस आलेख में लिखा था-“ भारतीयता के प्रसंग की सबसे जटिल-ग्रंथि तो उसको पहचानने की है| उन विशेषताओं को रेखांकित करने की, जो मौलिक हैं और संशयरहित हैं | विशेषताओं को रेखांकित करते समय उन सीमांतों की स्पष्ट समझ, जहाँ सिर्फ अत्यंत आवश्यक धुंधलका ही बचे, अन्यथा उनके अर्थ और मर्यादाएं स्पष्ट नज़र आती रहें, और जो अतीत में ही अर्थवान और चमकती नज़र न आयें, बल्कि वर्तमान में भी स्पष्टतर होती नज़र आयें|
..... आवश्यक बात तो यह है कि पहचान के संकट को जानने के लिए हमें समाज के उस चित्त को ही जानना पड़ता है जो समय की अनंत उथल-पुथल और अनिश्चयों के बीच अपनी आस्थाओं और प्रतिज्ञाओं को नष्ट नहीं होने देता| हम हज़ारों प्रकार की स्मृतियों की छाया-आतप से गुज़रते हुए उस संपदा को इकट्ठी करते हैं, जिसे हम संस्कृति कहते हैं और जो बाद में हमारे समूह-चित्त के राग-द्वेष का निर्धारण करती है| राग ही की तरह द्वेष भी संस्कृति के हिस्से की चीज़ है| ध्यान देने की बात है कि संस्कृति अनुभवों की विराट श्रृंखला है इसलिए उसमें पुनर्नवा होने या कुच्छ विलुप्त होने की सारी संभावनाएं मौजूद हैं| मनुष्य इसी तरह इसी पराक्रम में अपना समय और संसार बनाते हैं|”
नन्द जी के गद्य की खासियत उसका ओढ़ा हुआ पांडित्य नहीं, बल्कि उसकी सहज सरल विश्सनीयता है| भाषा के सौन्दर्य का जितना आकर्षण इस गद्य में सुलभ है- उसी अनुपात में में लेखक की अपनी अविचलित आस्था और सामाजिक प्रतिज्ञा भी हमें निरंतर अनुभव होती है | कविता और गद्य- दोनों ही में एक सक्षम लेखक की तरह वह कभी भी अपने केंद्र से विचलित नहीं दीखते और बराबर अपने संकल्पों और स्वप्नों का पीछा करते हैं|
‘अतीत-राग’ (राजकमल प्रकाशन, २००९) पुस्तक में, मूलतः लोगों और जगहों के बारे में आत्मीय, अन्तरंग संस्मरण संकलित हैं| ये लेख एक सहृदय कवि-मन पर पड़ी लोगों की छवियों का अनुस्मरण हैं- ये बिलकुल टटकी, ताज़ा स्मृति हो जैसे! लेखक के शब्दों में- “ अतीत-राग’ के आलेख किंचित भावुकता के साथ लिखा उन लोगों का स्मरण है, जिनकी स्नेह-छाया में मैंने अपनी ज़िन्दगी को ‘पुनर्वसित’ करने की कोशिश की है| मैं आशा करता हूँ कि उनकी मूल्यवान जिंदगियां, हमारे बहत से संशयों की निरर्थकता का उच्छेदन कर सकने में मददगार साबित हो सकती हैं..”
इस किताब में नन्द बाबू ने पंडित जवाहर लाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, हीरालाल जैन, नरेन्द्रपाल सिंह चौधरी, गिरिधर शर्मा ‘नवरत्न’, शकुंतला ’रेणु’, पंडित रामनिवास शर्मा, जैनेन्द्र कुमार, डॉ. श्यामाचरण दुबे, डॉ. शिवमंगल सिंह ’सुमन’, डॉ. रांगेय राघव, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, कौशल्या अश्क, यशपाल, डॉ. कालूलाल श्रीमाली, डॉ. आलम शाह खान, पंडित युगलकिशोर चतुर्वेदी, रामगोपाल विजयवर्गीय, केसरीलाल बोर्दिया (दादाभाई), प्रकाश आतुर, भागीरथ भार्गव, डॉ. नरेन्द्र भानावत, कल्याणमल लोढ़ा, महेंद्र भानावत, कमर मेवाड़ी, ललितकिशोर चतुर्वेदी के अलावा अपने गाँव और वहां के ‘भागीरथ काका’ के बारे में भी बहुत अच्छे संस्मरण लिखे हैं| एक मज़ेदार संस्मरण उनकी पहली और शायद अंतिम इंग्लेंड यात्रा के बारे में भी है!
भावना में डूबे से कलेवर में प्रायः संक्षिप्त ये संस्मरण व्यक्तियों के बारे में बहुत सधा हुआ, विश्वसनीय और अधिकृत विवरण देते हैं| नन्द जी जिन मार्मिक स्वरों में बीते दिनों की याद अपने गाँव के दिनों को लेकर करते हैं, वे स्वर उनके कवि-चित्त की भावना भरी-सरलता और मृदुलता के बंद किवाड़ खोलते हैं| एक धुंधले से, (किन्तु पढ़ने में अच्छे लगने वाले) विषाद की छाया उनके पुश्तैनी घर और गाँव संबंधी संस्मरण में है| अपने आरंभिक जीवन, बचपन और तरुणाई के कई चित्र-शिल्प वह कुशलता से टांचते हैं| नन्द जी ने अपनी साहित्य-यात्रा की शुरुआत वृजभाषा की परम्परगत कविता से की थी और उनकी दशकों लम्बी लेखन-यात्रा ने आधुनिकता तक के कई पड़ाव देखे और तय किये थे- इसलिए उनके यहाँ परम्परा की ताक़त भी है, साथ ही समकालिक नयेपन को स्वीकारने का साहस भी| उन्होंने सदा अपने समय के साथ यात्रा की थी और अपने कई दूसरे समकालीनों की तरह उन्होंने अपने गद्य और कविता- दोनों को कभी ‘अप्रासंगिक’ या ‘अतीतबद्ध’ होने न दिया!
उनकी गद्य-रचनाओं में हमारे समय, समाज और आधुनिक-सभ्यता की अनेक चिंताएं हैं| ये काल्पनिक या वायवी चिंताएं ज़रा भी नहीं- विगत और आगत के प्रसंग में एक विचारशील आधुनिक मनुष्य के अनेक वैध-संदेह और उलझनें आप उनके गद्य-आलेखों में देख पाते हैं| वह जहाँ-जहाँ ज़रूरी है- एक आत्म-उत्तरदायी चिन्तक की तरह कई तरह के ज़रूरी प्रश्न उठाते और यथासंभव रचनात्मक हस्तक्षेप करते इन सवालों का समाधान खोजना चाहते हैं|
नन्द बाबू ने अपने आरंभिक छात्र जीवन से ही जिस समतावादी-समाजवादी अंतर्दृष्टि का विकास किया था- अंत तक प्रायः हर रचना में- चाहे वह गद्य हो या कविता, उस विचारधारा का ईमानदार निर्वहन भी हम बराबर देखते हैं| कविताओं में उनकी यह कोशिश ‘उत्सव के निर्मम समय’ में एक ‘ईमानदार दुनिया के लिए’ आगे देखने और चलने की कोशिश थी| वह जानते थे- ‘यह समय मामूली नहीं’, उनकी कविता वहां जाने की कोशिश थी जहाँ ‘उजाले की एक रेखा खिंची है’| कविता के माध्यम से वह अनुमान लगा सकते थे- “वे सोये तो नहीं होंगे!”
नन्द जी ऐसे अपवाद वरिष्ठ लेखक थे जिन्होंने अपने से उम्र, यश, और कुछ हद तक ‘प्रतिभा’ में कनिष्ठ लेखकों तक को चर्चा, साक्षात्कार, हर भाषण में बेहद स्नेहपूर्वक याद रखा और उन पर, उनके बारे में, जब-जब मौका लगा- लिखा भी| इस मायने में नन्द जी हमारे समय की कई प्रतिभाओं को आकृति देने वाले, उन्हें उत्साहित करने वाले एक बड़े उदारमना लेखक थे| मेरी एक कविता-पुस्तक “आप को यह जान कर प्रसन्नता होगी’ का ब्लर्ब उन्होंने लिखा था, मेरी दूसरी एक किताब पर पूरी समीक्षा भी- साहित्य अकादमी सहित कई आयोजनों और दूरदर्शन साक्षात्कारों में उन्होंने सार्वजनिक रूप से मेरे लिखे को खुल कर याद किया और सराहा- ये मुझे याद है! अपनी पत्रिका ‘बिंदु’ में कविताएँ छापते हुए एक ख़त में उन्होंने चेतावनी देते लिखा था- “तुम्हारी कवितायेँ बहुत अच्छी हैं – ‘बिंदु’ के नए अंक में जा रही हैं- मुझे पता नहीं तुम अभी विद्यार्थी हो या क्या- पर फैलता हुआ यश एक खतरा है- वह लुभाता है और लेखक को कहीं का रहने नहीं देता !” तब मैं दसवीं कक्षा का एक छात्र था- पर ‘लहर’ ‘कल्पना’ और ‘धर्मयुग’ जैसी पत्रिकाओं में छाप दिया गया था- शायद यही सब लक्ष कर उन्होंने ऐसा कहा हो !
‘आप को यह जान कर प्रसन्नता होगी’ के फ्लैप पर उनकी निम्नांकित टिप्पणी मेरे लिए आज भी मूल्यवान है- “हेमन्त शेष की कविता पढ़ कर बहुत से समीक्षात्मक मंतव्य प्रकट किये जा सकते हैं। उदाहरण के लिए कविता-प्रयोजन, सामाजिक-सरोकार और कथ्य की अहमियत के साथ वे सारे कलात्मक दावे, जो कविता की मुक्ति के और विचारधारा की जकड़न से छिटक जाने के पक्ष या विपक्ष में हो सकते हैं। लेकिन ऐसा कर के भी हम साधिकार यह नहीं कह सकते कि यही कविता लिखने की ऊर्जा या आकांक्षा है या कि रहस्य है जिसे बहुत से आलोचक जानने का अहंकार करते हैं।
विचारणीय यह है कि हेमन्त शेष की कविताओं का सम्मोहन क्या है ? दरअसल हेमन्त शेष के पास रचनाषील भाषा को प्रयोग में लाने का संकल्प और अद्भुत शक्ति है। उनकी कविता में हमें बनी-बनायी दुविधा ऩजर नहीं आती, जिसका विध्वंस हो रहा है या जिसके गिरते कंगूरों, विशाल गुंबजों को रंग-रोगन और नक्काशी की जरूरत हो। उनकी कविता में वैसी दुनिया भी नहीं है, जिसकी व्याख्या समाजशास्त्र या अर्थशास्त्र के सिद्धांतों पर होती है। यहां एक किस्म की स्वाधीनता हैः रचना की, प्रेम की अनंत यात्रा की, लौटने की, उल्लसित होने की, पछतावे की या प्रतीक्षा की, कुछ भी याद न रखने की और सब कुछ याद रखने की।
हेमन्त शेष की इस विषेशता की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है कि वे अपने भाषा-सम्मोहन को ‘‘ऐब्सर्डिटीज’ और अप्रासंगिक दृश्य-बिंबों से नहीं जोड़ते और न उस कल्पनाशीलता को अवरुद्ध होने देते हैं, जहां कविता के अनंत शक्ति-स्रोत हैं। उनकी प्रायः सब कविताओं में कल्पनाशीलता की वह आभा है, जो प्रायः विषाद, बेचैनी और ठिठुरते हुए अनुभवों के बीच से रास्ता बनाती है। कलात्मकता का सारा रहस्य यही है कि वह थकती हुई और एकआयामी, एक से चेहरे वाली दुनिया को भी कुछ न बचा सकने वाली उदासी से बचा लेती है।
हेमन्त की कविताओं की एक विशिष्टता यह भी है कि वे अपनी भाषा को लगातार जानी-पहचानी, विश्वसनीय और अक्लांत रखने की कोशिश करते हैं । मैं उनकी कविताओं की मोहिनी से बंधा हूं । -नन्द चतुर्वेदी”
क्या ऐसा कोई उपक्रम संभव है कि नन्द जी की सारी गद्य-रचनाएं अब एक जगह संकलित की जाएं और उस बड़े से संकलन में उनके नए-पुराने सब उपलब्ध पत्रों का भी एक अलग खंड हो- पत्र, जिनमें नन्द जी का मन-मानस हर बार बेहद बेबाकी, निश्छलता और ईमानदारी से खुलता दीखता था |
मेरे पास अपनी किताब भेजते हुए नंदजी ने १० दिसंबर, २०१२ को उदयपुर के अपने घर ३०, अहिंसापुरी, फतहपुरा से जो चिट्ठी लिखी थी उसे अपने मित्रों से नीचे साझा करते हुए मैं एक ऐसी विलक्षण शक्सियत नन्द चतुर्वेदी के न होने का संताप अनुभव कर रहा हूँ, जिनका मेरे जैसे मामूली लेखक से सघन संपर्क सन सत्तर के दशक से था- उनसे पत्राचार भी| अब जब दुर्भाग्य से नंदजी जैसे निष्कलुष व्यक्तियों के जीवंत सान्निध्य से हम सब लोग वंचित हैं- एक उत्सुक रचनाधर्मी, बेहद प्रभावशाली-वक्ता, दृष्टिवान-सम्पादक, और उन जैसे सहज किन्तु जीवंत साहित्यिक-व्यक्तित्व की कमी हमें सदा अखरती रहेगी!
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प्रिय हेमंत,
आपका ( या तुम्हारा, कुछ समझ में नहीं आता ) नया कविता-संग्रह मिला, जिसमें एक कविता मेरे लिए भी है! मैंने एक मामूली लड़के की तरह, बिना किसी कामना के, कविता लिखना शुरू किया था, और देखा आपने- उसने मुझे आज कितना ‘श्री-मान’ बना दिया है! सचमुच मुझे बिना किसी कारण के (कवित विवेक नहिं मोरे, सत्य कहहुं लिखि कागद कोरे ) मुझे आपकी आत्मीयता मिली है| मेरे लिए यह विरल ऐश्वर्य है|
दुनिया को मैंने किसी तात्विक-दृष्टि न देखा न समझा- जैसी मिली उसी में उलझा–उलझा रहा| उस से कुछ ‘विमुक्त’ होने का रास्ता ‘लिखना’ था- इसलिए लिखता रहा | लेकिन दुनिया कोई ‘रोमांस’ नहीं थी, वह विभाजित थी, वही त्रासदी, वही विभाजन समझ में आया| उस की कविता की|
‘सर्जना’ को, ‘क्रियेटिविटी’ को पहचानने की अदम्य आकांक्षा को विलुप्त नहीं होने दिया! निस्संदेह यह हज़ारों रूपों में फलवती होती रहती है| मैंने उसका एक रूप देखा, लेकिन दूसरे ने यदि दूसरा समुन्नत रूप, तो मुझे कुछ बुरा नहीं लगा| ‘सर्जनात्मकता’ वैयक्तिक स्वाधीनता है|
आपकी कविता इसी अर्थ में महत्वपूर्ण है कि वह किसी ठहरे हुए अर्थ की व्यंजना नहीं करती, नए अर्थों को तलाश करने का उत्साह देती है| इस कारण मैं मुद्दत से आपको अपने लिए एक आवश्यक कवि मानता रहा |
आपका ताज़ा संकलन मैं जल्दी ही पढ़ लूँगा, ऐसी आशा है| ‘राजकमल’ से अभी-अभी आयी पुस्तक भेज रहा हूँ| ये समय-समय पर लिखे आलेख हैं| किसी गहन ‘तत्ववाद’ पर केन्द्रित नहीं हैं| केवल दुर्विनीत समय की त्रासदी का सरल वृतांत हैं| पुस्तक और पत्र की पहुँच फोन पर दे दें| जयाजी को प्रणाम| शेष शुभ|
नन्द चतुर्वेदी
पुनश्च-
(आपकी) पुस्तक “ प्रपंच-सार-सुबोधनी” का नाम ऐसा क्लिष्ट नहीं होना था| वह श्रुति-मधुर भी नहीं| नाम तो सहज-स्मरणीय हो, दूसरों को सहज बना सकने जैसा, और उसे भी सहज-ग्राह्य!
मैं भी एक और कविता-संग्रह तैयार कर रहा हूँ- “आशा बलवती है राजन!”
-न.च.