मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009










काला ही सब रंगों की मां है

विद्यासागर उपाध्याय की कला पर केन्द्रित

विद्यासागर उपाध्याय ( जन्म: 1948 ग्राम परतापुर ज़िला बांसवाड़ा ) की गिनती देश के प्रमुख प्रतिभाशाली आधुनिक चित्रकारों में महज़ इसलिए नहीं की जाती कि उन की रचनाओं के अनेकानेक प्रदर्शन हो चुके हैं, इन की कृतियां ‘भारत त्रिनाले’ सहित देश विदेश की कई प्रतिष्ठित कला दीर्घाओं में जगह बना चुकी हैं और हर साल बनाती आ रही हैं, अपितु पिछले कुछ बरसों में वह अपने काम को और आगे ले जाते उसे परिवर्तित और परिवर्धित करते एक सजग समझदार कलाकर्मी के तौर पर प्रेक्षकों और समीक्षकों का ध्यान बराबर खींचते आ रहे हैं। अब छूट चुकी सरकारी नौकरी के बावजूद वह सचमुच एक ‘नियमित’ चित्रकार बने रहे हैं : जयपुर के राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स में केवल ग्राफिक कला का अध्यापक बन कर गुमनामी में न खो गए चित्रकार। स्वभाव से वह बहुत मेहनती हैं और उन की कृतियां भी उन के इसी गुण की ताईद सी करती हैं जिन में चित्रकार की माध्यमगत लगन साफ देखी जा सकती है।वे अनायास ‘बन’ गई नहीं ‘बनाई’ गई कृतियां हैं। पिछले कई बरसों से वह ज्यादातर एक्रेलिक में ही काम करते आ रहे हैं क्यों कि “यह तैलरंगों की बजाय ‘जल्दी सूखने वाला’ माध्यम तो है ही इस में विषयवस्तु के हित में ‘ओपेक’ या पारदर्शी प्रभाव पैदा करना भी अपेक्षाकृत आसान है।” उपाध्याय कहते हैं । प्रिन्ट बनाना और लगातार रेखांकन भी जैसे स्वभाव से इन के कलाकार के साथ जुडे़ हैं। चौथाई सदी से भी ज्यादा अरसे से अगर वह प्रकृति के अनगिनत रूपों में से कुछ को बराबर केन्द्रीय जगह दिए चले जा रहे हैं तो यह तथ्य इसी का तो सूचक है न कि प्रकृति के विविध रूपाकारों को ले कर इन के मन मानस का अनुराग गहरा है। “ इस जन्म में तो प्रकृति के शिकंजे से छूटना नामुमकिन है।” वह कुछ कुछ अतिशयोक्तिपूर्वक कहते भी हैं। इन के नये पुराने चित्रों में हम ज्यामिति और तंत्र के परिचित प्रतीक़ जहाज़ जैसी आकृतियां पहाडों के जिस्म़ उड़ते अमूर्त पक्षी आकाऱ तैरते हुए शिलाखंड़ मछलियां रेत़ फूल़ पानी के बिम्ब़ उन के प्रतिबिम्ब़ बादल़ चट्टानें और मानवाकृतियां और पानी की लहरों सब की मिली जुली सी याद कर सकते हैं। पर याद रहे : सिर्फ याद ही । इन में से एक भी चीज विद्यासागर उपाध्याय की कला में सीधे सपाट ढंग से नमूदार नहीं होती। इन के सिर्फ उतने संकेत ही हमें दिखते हैं जो चित्र संरचना के लिए अनिवार्य हैं : एक चित्र प्रेरणा या प्रस्थान बिन्दु की तरह। ज्यामिति और तंत्र के इन के प्रारंभिक चित्र दौर में हमने सन सत्तर के दशक में विद्यासागर उपाध्याय की पहले पहल पहचाऩ केवल पैंसिल ही में काम करने वाले एक सिद्धहस्त अधुनातन कलाकर्मी के रूप में की थी। कुछ कर दिखाने को आतुर एक विनम्र देशज सा चित्रकाऱ जिस की कला में तब शायद मेवाड़ के अंचल के भू दृश्य ही प्रमुख थे : पहाड़ .चट्टानें .अंधकाऱ. जंगल ..बेलें और पानी। वे एक किस्म की बहुत मुखर आदिम स्वाधीनता और स्वायत्तता के बल पर ग्रेफाइट में बनाए गए अनगिनत सैरै थे : स्याह सफेद ।अमूर्त और आनन्ददायी ।ज्यामिति के प्रचुर उपयोग के बावजूद उन का उन्मुक्त और खुला संसार आदिवासी अंचल बांसवाड़ा की अछूती ताज़गी और अरावली के ‘अक्षत कौमार्य’ की याद जगाता था। तब कहीं उन पर तंत्रकला का प्रभाव भी गहरा था। बाद में अपना गांव घर छोड़ कर जयपुर में बस गए विद्यासागर उपाध्याय की कला ने बार बार बहुत से रोचक मोड़ लिए हैं। “राजसमंद जिले के एक बेहद अनजाने छोटे से गांव में जहां मैं एक सरकारी स्कूल में ड्राइंग टीचर था़ न तो कैनवास ही मिलते थे़ न रंग। अभाव का जीवन था। महंगे साजोसामान के लिए पर्याप्त पैसे भी नहीं थे इसलिए कागज़ पर महज पैंसिल से काम करना मेरी मजबूरी थी।” विद्यासागर उपाध्याय पुराने कठिन दिन याद करते कहते हैं। “पर इसी 3 बी के ग्रेफाइट ने मुझे मेरी सच्ची पहचान दी। आज भी अगर कोई मुझ से मेरे सब से प्रिय माध्यम के बारे में पूछे तो निस्संकोच मैं पैंसिल का ही नाम लूंगा। फिर एक्रेलिक का और फिर तीसरे नम्बर पर लिथोग्राफ़ी का।” काले सफेद को ले कर विद्यासागर का अपना एक चिन्तन है। उन्होंने बरसों तक इसी पर हाथ आज़माया है। वह हिन्दुस्तान के ऐसे इने गिने चित्रकारों में अग्रगण्य हैं जिन्हें स्याह सफेद पर उतनी महारथ हासिल हो।भले ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ में काम करना विद्यासागर जैसों की मजबूरी शायद कभी रही हो रचनात्मक तौर पर विद्यासागर का मानना है कि “रंग एक चुनौती हैं। दुनिया के सारे रंग सौन्दर्याभिव्यक्ति में सहायक हैं पर काला रंग तो जैसे सब रंगों की मां है। आम तौर पर काला परम्परागत रूप से भारत में जिन मनोभावों से सम्बद्ध किया जाता रहा है़ उस से भिन्न अपने चित्रों में मैंने काले रंग को वस्तु सौन्दर्य की पराकाष्ठा दर्शाने वाले रंग के तौर पर ही काम में लिया है। काला शान्त और जितना गम्भीर रंग है़ उस की चित्र में उपस्थिति उतनी ही महत्वपूर्ण भी। आपने भी तो नोट किया होगा सफेद या कि दूसरे दूसरे किन्हीं और रंगों से इस की संगति या सन्तुलन खुद अपने अस्तित्व की अर्थवत्ता प्रदर्शित करता है।” विद्यासागर का विचार है। पर यह देखना रोचक है कि बरसों स्याह सफेद में काम करने के बाद जब वह रंगों को काम लेने लगे तो एकाएक प्राय: सारे ही इन के यहां कुछ इस तरह दिखने लगे जैसे कोई थमा हुआ बांध सा टूटा हो। यहां तक कि सामान्यत: जिन रंगों का इस्तेमाल प्राय:कई चित्रकार लगभग नहीं करते या संकोचपूर्वक कभी कभार ही करते हैं : रजत़ गुलाबी़ हरे़ नींबुआ रंगों के कई कई मनमोहक शेड्स और इनकी रंगतें। मुझे याद है़ उन के बहुत से या कुछ प्रशंसकों को तब यह बदलाव बहुत प्रीतिकर नहीं लगा था। पर संयोग से बहुत जल्दी विद्यासागर उपाध्याय के नए कामों ने उन्हें अपनी राय संशोधित करने पर बाध्य कर दिया और काले सफेद ही की तरह उन की चित्र संचेतना में लगभग प्रयासहीन ढंग से रंग भी कुछ ऐसे घुल मिल गये जैसे वे चित्रकार की प्राथमिकता से परे कभी थे ही नहीं। “...........टाइप होना मुझे पसन्द नहीं है और अगर कोई है तो ‘एब्सट्रेक्ट एक्सप्रैशन ’ ही मेरा टाइप है :।मैं जो चीज़ गहराई से अनुभव करता हूं उसे पूरी तरह यथासंभव आखिरी हद तक अपनी रचनाओं में उतारना और अनुभव करना चाहता हूं।” उनका कहना है। आकस्मिक नहीं है कि इन की अनेक चित्र श्रंखलाओं में पुरानी कला श्रंखलाओं की स्मृतियां भी आप देख पा सकते हैं। यह निस्संदेह एक गुण है।खुद अपनी परम्परा में नया करते भी उस का अनुरक्षण :स्मृति में होना ही मनुष्यत्व में होना है। विद्यासागर के चित्रों में आए परिवर्तनों को या उनकी चित्रभाषा के बदलावों को इस आलोक में देखना उनकी रचनात्मक ‘अरूढ़त़ा’ का संभवत: सही मूल्यांकन हो। अगर उनकी चित्रभाषा स्वाभाविक तौर पर परिवर्तनगामी है़ तो उन के कैनवासों का आकार प्रकार और चित्र प्रस्तुति तौर तरीका भी यदा कदा प्रयोगशील। आयताकार वगार्कार छोटे और बडे़ कैनवासों को वह काम लेते हैं : पर कभी कभी गोल कभी त्रिकोणात्मक कैनवासों तक को भी। स्वाभाविक तौर पर वह चित्र प्रस्तुति में ज्यादा प्रयोगशील तब भी होते हैं जब अपने घर में यानि जयपुर में कोई प्रदर्शनी करते हैं। वर्ष 2005 में जयपुर के जवाहर कला केन्द्र की चित्रदीर्घा में प्रदर्शित उनके सारे कैनवास वृत्ताकार थे। “छोटे कैनवास आकार की अपनी सीमाएं हैं । अगर मुझे प्रकृति के विशाल और उद्दाम रूपों को बोल्ड ढंग से चित्रित करने करना है तो बडे़ आकार के कैनवास ही चाहिएं।” इन के दृश्यचित्र पूरी तरह अमूर्त होते हुए भी बेहद आकर्षक हैं : एक खास तरह की आधुनिकता के सौन्दर्य से मंडित। हालांकि कई दफा़ वे महज़ खूबसूरत ‘कंपोजीशन’ भर दिखते हैं।या कभी कभार व्यावसायिकता के दुनियादार तकाजों से घिरे चित्र। इन के यहां कैनवास की सफेद सतह को अवकाश के बतौर छोड़ने और बरतने का विवेक तो स्पष्ट ही है।कुछ एक बार वह लयात्मक या जैविकीय से दिखलाई पड़ने वाले रूपाकारों को एक खास तरह के ‘जमाव’ के द्वारा अभिव्यक्त करने की इच्छा में डूबे जान पड़ते हैं। नदी किनारे के गोलाकार पत्थरों आकाश के धब्बों और पठारों के सुदूर बिम्बों को बार बार पकड़ना चाहती इनकी कलाकृतियां हमें असल कथ्य से इतर भी पृष्ठभूमि के आलोक और धुंधलकों का लगातार परिचय देतीं हैं।जो चीजें मूलत: फलक पर आई हैं उन की भूमिका के बतौर विद्यासागर उन की पृष्ठभूमि के अंकन में भी ख्चिशील हैं और शायद असल में यही इन के अमूतढ दृश्यांकनों की चैत्रिक ‘सुन्दरता’ का रहस्य है। कभी अपनी रचना की अंदरूनी मांग पर और कभी प्रेक्षक की प्रफुल्लता के लिए विद्यासागर अपने चित्रों और रेखांकनों में ‘टैक्सचर’ उकेरने का काम करते हैं। तैलचित्रों में वह कैनवास के अपने‘ टैक्सचर’ का भी यथा जरूरत उपयोग कर लेते हैं पर अच्छी बात है कि चित्रों का आन्तरिक अनुशासन ये ‘ टैक्सचर’ कभी भी भंग नहीं करते।वे जहां भी आते हैं बहुत जरूरी अंशों की शकलों में शिष्टतापूर्वक । वे ‘ टैक्सचर’ इतने वाचाल नहीं कि मूल कथ्य से ध्यान हटा कर वे हमें अपने ‘होने’ में ही भटका दें। “अगर चित्र एक सम्पूर्ण ‘डिजा़इन’ भी है तो सतह के वैविध्य के हित में पेन्टिंग का हर हिस्सा महत्वपूर्ण है।उस के सौन्दर्य का विस्तार करने की दृष्टि से टैक्सचर का अपना महत्व है। सरफेस और मैटीरियल दोनेां की अपनी सीमाएं है़ं परन्तु टैक्सचर दोनों ही सीमाओं का अतिक्रमण कर सकते हैं। “एक्सप्लोरेशन’ खुद कलाकार पर निर्भर है।“ विद्यासागर का मानना है। यह देखना आश्वस्तिदायक है कि कला की राजनीति में भी गहरी सजगता रखने या चित्रकार के रूप में उन तक आई सफलता ने खुद विद्यासागर को एक दोस्त या मनुष्य के तौर पर या उन की कला को अब तक भी नष्ट नहीं किया है और वह अपनी प्रतिभा और कौशल का नियमित उपयोग करते हुए इधर कुछ ज्यादा चचिर्त अपने चित्रकार बेटे चिन्तन उपाध्याय की तरह हमारे समय के नए कला परिदृश्य को सम्पन्नतर करने में गम्भीरता से जुटे हुए हैं।
हेमन्त शेष

5 टिप्‍पणियां:

  1. aapne jo likha usake baare men jankar mujhe sach men prasannataa hui ....
    ब्लॉग की दुनिया में आपका हार्दिक स्वागत है .आपके अनवरत लेखन के लिए मेरी शुभ कामनाएं ...

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  2. आपने उनके कला कर्म के मर्म को छूने की एक पारदर्शी कोशिश की है जिसमें उनकी कला के प्रति आपके गहरे लगाव की झलक भी मिलती है। आपने भरसक शब्दाडंबर से बचकर बहुत ही विनम्रता से विश्लेषण करने की कोशिश की है। यह प्रीतिकर है।

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