बुधवार, 15 अप्रैल 2009



अब पूनम दैया भी हमारे बीच नही हैं



कला प्रयोजन के एक लेखक और हिन्दी के पुराने संपादक पूनम दैया का उदयपुर में हृदयाघात से गत दिनों निधन हो गया । उन्हें दिल का दौरा पड़ा था और पिछले दिनों फ्रेक्चर का दुःख भी झेलना पड़ा। इन पंक्तियों के लेखक के प्रति पूनम जी का निश्छल प्यार याद रखने लायक बात है। इधर बहुत दिनों से शहर से बाहर रहना पडा। राजस्थान की खबरें वहां पहुँचती ही नहीं थीं। विगत ६ अप्रैल को हार्ट अटैक के बाद हमारे प्रिय लेखक और राजस्थान साहित्य अकेडमी के पूर्व अध्यक्ष श्री पूनम दैया का निधन का समाचार मेरे वरिष्ठ मित्र और हिन्दी आलोचक डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कुछ यों दिया : " अरे! मुझे तो लगा कि आपको तो पता ही होगा. उन्हें हार्ट अटैक हुआ था. कल रात पीयूष से चैट कर रहा तो, तो उसने बताया. वैसे उनके न रहने की खबर मुझे पल्लव ने दी थी. पूनम जी वैसे पुराने हृदय रोगी थे, लेकिन उनका जाना मुझे तो स्तब्ध कर गया है. मुझसे उन्हें गहरी आत्मीयता थी, उनका सरल, निष्कलुष , वत्सल स्वभाव मुझे हमेशा याद रहेगा। मैं पूनम जी के माध्यम से ही पहली बार आपके स्नेह की धार से भीगा था - यह याद आया। "
पीयूष दैया उनके होनहार संपादक पुत्र हैं जो इधर दिल्ली में समकालीन कला का संपादन कर रहे हैं। पीयूष अपने ख़त में कुछ यों लिखा : आप का ख़त. सच है मेरे पिता एक वत्सल सरल हृदय व्यक्ति थे. न शोक के लिए शब्द हैं न विदा के लिए शायद। आज दिल्ली लौट आया हूँ......... "
वह "वातायन" के सम्पादकीय मंडल में भी रहे थे और बरसों बीकानेर में। अब अपना घर "विश्राम कुटी 'चेतक सर्कल' के आसपास बनवा कर पूनम जी चुपचाप उदयपुर में रहते थे। अब वह अनंत विश्राम में चले गए ......

एक साहित्यिक आलोचक दोस्त माधव हाडा ने लिखा: "खबर बहुत दुखद , लेकिन सही है। यह सोच कर कि मुझे पता होगा किसी ने मुझे नहीं बताया। उंनसे आत्मीयता थी। "

ये आखिर हो क्या रहा है ????

हिन्दी के लेखकों का क्या मारकेश चल रहा है ?

पहले सुदीप बनर्जी गए, फिर लवलीन, फिर यादवेन्द्र शर्मा चंद्र, फिर विष्णु प्रभाकर जी, और अब पूनम जी । अभी आज के अखबार में राजस्थान पुरातत्व विभाग के पूर्व निदेशक और मेरे वरिष्ठ मित्र डॉ. विजय कुमार की मृत्यु का समाचार भी पढ़ा । हम इस खालीपन पर खिन्न हैं.......


विजय कुमार ने देश के प्रख्यात शोधकर्ताओं और खुदाई-विशेषज्ञों के साथ लंबे अरसे तक काम किया था । वह ख़ुद एक जाने माने पुरातत्ववेत्ता उत्खनन विशेषज्ञ थे। नगरी- चित्तौड़ , आयद ( उदयपुर) और कालीबंगा अदि की खुदाइयों में विजय कुमार का भी योगदान था , पर सबसे ज्यादा प्रसिद्धि उन्हें बैराठ के क्षेत्र में की गयी खुदाई की वजह से मिली, जहाँ विजय कुमार जी ने महाभारत काल के विराटनगर में खुदाई के दौरान मिले ताम्बे के सेकडों तीरों की खोज की और महाभारत युद्ध की ऐतिहासिकता पर अनुसन्धान को नई दिशा सोंपी। कहा जाता है विराटनगर में बने और ढले इन तीरों का उपयोग महाभारत की लडाई में हुआ था।
आज जब डॉ विजय कुमार, पुरातत्ववेत्ता और बेहतरीन विद्वान के निधन की ख़बर पढी तो याद आया , विजय वर्मा साहब के एक भाषण में, जो बहुत दिन पहले म्यूज़ियम विभाग ने मन्दिर वास्तुकला पर आयोजित किया था : विजय कुमार से भी मेरी मथुरा के मूर्तिशिल्पों पर लम्बी बात हुई थी। वह पुरातत्व से जुड़े कई विषयों पर कलम चलाते रहे और उनके लेख शोध पत्रिकाओं ने छापे ।

आज जब विजय कुमार की याद आयी तो मथुरा संग्रहालय की भी, जहाँ ऊपर प्रदर्शित गौतम की सुपरिचित आकृति, हम अपने दिवंगत दोस्तों की याद में देखें, देखते रहें !



मथुरा का संग्रहालय

आदिकाल से मथुरा नगर की गिनती भारत के सबसे बड़े और विशाल नगरों में होती आयी है । अब यह उतना विशाल नगर नही जितना एक दौर में हुआ करता था। पर किताबें ये कहती हैं : ईसा से ३ सदी पहले मथुरा की जनसँख्या ६०,००० से भी ज़्यादा थी। यह 'सप्त महापुरियों ' में गिना जाता रहा। बौध्ध, जैन, वैष्णव और शैव सम्प्रदायों ने मथुरा में अद्वितीय पूजा स्थलों का निर्माण करवाया था । मथुरा में नन्द, मौर्य, शुंग, क्षत्रप, और कुषाण वंशों का शासन रहा था, । आज भी मथुरा कृष्ण की लीला स्थली के बतौर लाखों लोगों की आस्था और धार्मिक विश्वास का केन्द्र है । मथुरा का संग्रहालय अद्वितीय है। आज के हमारे तथाकथित सांस्कृतिक रूचि रखने वाले स्वनामधन्य प्रशासक पुराने अँगरेज़ प्रशासकों का क्या मुकाबला करेंगे ? कई बार तो अपने आप पर शर्म आने लगती है ! मथुरा की कला संपदा से प्रभावित हो कर मथुरा के तत्कालीन जिलाधीश ऍफ़ .एस. ग्राउज ने मथुरा जनपद में यहाँ वहां बिखरी कला संपदा को सहेजा और ये संग्रहालय 1876 में बनवाया था .

मथुरा की सबसे महान बात : यहाँ हुआ मूर्तिकला का असाधारण विकास है। रचना सामग्री की बहुतायत और कारीगरों की लम्बी परम्परा के चलते विविध धर्मों से ताल्लुक रखने वाले लाखों मूर्तिशिल्प यहाँ बनाये गए और यही कारण है मथुरा में किसी न किसी वक्त बनाई गयी बेहतरीन मूर्तियों दूर दूर तक ले जाया गया। लोग मथुरा सिर्फ़ मूर्तियाँ गढ़वाने को ही आते थे। सारनाथ, तक्षशिला, श्रावस्ती, भरतपुर, बोध गया, साँची, कुशीनगर और कोसंबी तक मथुरा की कला के नमूने देखे जा सकते हैं । संग्रहालय मथुरा अलग और खासा दिलचस्प लगा ; खास तौर पर मूर्तिशिल्पों की वजह से। भारतीय इतिहास की सबसे प्रसिद्द मूर्तियाँ यहाँ संगृहीत हैं। यहाँ के बहुत से नमूने राष्ट्रीय संग्रहालयों को भेजे जा चुके हेँ। और दिल्ली , कलकत्ता , मद्रास के अजायबघर मथुरा की कला से संपन्न हैं। बुद्ध के जिस महान मूर्तिशिल्प को अमरीका सद्दाम की लडाई के दौरान तालिबानों ने नष्ट किया वह विशाल और अति भव्य कलाकृति भी मथुरा में ही बनी थी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें






Facebook Badge

फ़ॉलोअर