गुरुवार, 6 अगस्त 2009

ज्योतिस्वरूप का जाना

भारतीय आधुनिक कला में अक्सर राजस्थान के चित्रकारों के योगदान को अलक्षित ही किया जाता रहा है और यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ज्योतिस्वरूप जिनका कल निधन हुआ, कला की इसी ओछी राजनीति के शिकार थे । वह सच्चे अर्थ में राजस्थान के पहले और मौलिक चित्रकार थेसन ६० के दशक में जब बंगाल स्कूल और यथार्थवादी कला का बोलबाला था , जोधपुर जैसी छोटी जगह से कर ज्योतिस्वरूप (१९३९-२००९) ने अपने आधुनिक सोच और नवाचार के बल पर तत्काल अपनी कला की तरफ़ सुधी समीक्षकों और प्रेक्षकों का ध्यान खींच लिया था और यह आकस्मिक नहीं था कि उनके काम की असाधारण मौलिकता से यहाँ के ही नहीं, भारतीय कला जगत तक के समकालीन कई चित्रकार बेहद प्रभावित हुए थे, जिनमे कँवल कृष्ण जैसे अपेक्षकृत वरिष्ठ कलाकर्मी भी थेदिल्ली में कुछ वक्त कँवल कृष्ण और देवयानी कृष्ण के निकट सान्निध्य में रह कर ज्योतिस्वरूप ने एक और नए माध्यम : सेरेमिक और बाटिक में महारत हासिल करते हुए कई सरकारी मंडपों और भवनों के लिए विशाल आकAar के सेरेमिक murals का निर्माण कियाशायद सन साठ और सत्तर क्दशक इस कलाकार का स्वर्णिम दौर था जब रंगों और रसायनों से निर्मित उनकी चित्र श्रंखला 'इनर जंगल' का प्रदर्शन भारत और फिलेडेल्फिया की कला दीर्घाओं में किया गयावह बेहद उत्सुक और मेहनती रचनाकार थे- माध्यम को लेकर किए गए उनके अनेक प्रयोग आज भी कला जगत में याद किए जाते हैंविज्ञानं का विद्यार्थी होने कि वजह से उन्हें रसायनों का गहरा ज्ञान था पर कोई औपचारिक डिग्री लिए बिना भी ज्योतिस्वरूप परा मनोविज्ञान, समकालीन साहित्य महत्वपूर्ण लेखन के अध्येता थे केवल वह taaza किताबों के बारे में गहरी दिलचस्पी रखते थे बल्कि अपने पडौस की किताबों की एक बड़ी दूकान से मुफ्त किताबें लाकर पढ़ पाना उनका विशेषाधिकार था क्यों कि बुक्स एंड बुक्स के मालिक सिंघवी भी मूलतः उसी जगह के थे जहाँ के ज्योतिस्वरूपअपने अन्तिम दिनों और वर्षों में वह घोर आर्थिक कठिनाई में रहे और केंद्रीय ललित कला अकेडमी की fellowship के अलावा उनके पास नियमित आमदनी का कोई स्रोत नहीं था पर एक अलबेले, संघर्षरत, अकेले, एकांतवासी और हर तरह से अकेले हो चुके ज्योतिस्वरूप अपने अन्तिम वक्त तक रचनाशील बने रहेमुझे याद है उन पर 'कला प्रयोजन' में मैंने लंबा आलेख लिखा था और उनके कई चित्र भी हमने प्रकाशित किए थे, जहाँ जहाँ अवसर मिला हम मित्र उनकी कला की अप्रतिमता की चर्चा भी सादर करते थे, पर क्रमशः उनसे मिलने के अवसर कम होते चले गएगोष्ठियों में जाना भी उन्होंने छोड़ diya tha , पर मेरे दफ्तर वह कई baar जाया करते थे

आज जब ज्योति स्वरुप जैसे कलाकार अपनी मौलिकता और सृजनात्मकता के बावजूद कला जगत की मुख्यdhaaraa से बाहर कर दिए गए हैं , मुझे पता नहीं शिखंडियों और दुर्योधनों से भरे इस कला मंच का क्या अंजाम होगा क्यों कि हम अपने बड़े और महत्वपूर्ण कलाकर्मियों की उपेक्षा कर के हम अपनी कला की अवमानना ही तो कर रहे होते हैंमें जल्दी ही अपने ब्लॉग पर उनकी चित्रकला के बारे में vistaar से लिखना कहूंगा.





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